मुल्क के हालात को हर आदमी अच्छी तरह जानता है। जिस तेज़ी से हालात बदल रहे हैं, उन्हें देखकर कुछ नहीं कहा जा सकता कि कब क्या हो जाए। मुसलमानों के ताल्लुक़ से खुले आम मारने और क़त्ल करने की धमकियाँ दी जा रही हैं। मुसलमानों पर ज़्याद्तियाँ तो पहले भी होती थीं, लेकिन उस वक़्त ज़ालिमों का कोई साथ नहीं देता था। सेक्युलर पार्टियाँ उनकी हरकतों की मज़म्मत और निन्दा करती थीं। इन्साफ़-पसंद आवाज़ें उठती थीं, लेकिन अब इसमें कमी आ गई है।
हरिद्वार से मुसलमानों के क़त्ले-आम की जो आवाज़ लगाई गई है, उससे पूरे देश में मुसलमान ग़ैर-महफ़ूज़ और असुरक्षित हो गए हैं। दूसरी तरफ़ मुस्लिम लीडरशिप केवल बयानबाज़ी पर ही इत्मीनान किये बैठी है। घर किसी का महफ़ूज़ नहीं है, मगर सब एक-दूसरे के जलते हुए घर का तमाशा देख रहे हैं। हालाँकि अब बयानबाज़ी का वक़्त नहीं है, अब तो कुछ काम करने का मरहला है। जब साम्प्रदायिक और शैतानी ताक़तें खुले आम हथियार उठाने पर आमादा हैं, जब क़ानून लागू करने वाले इदारे ख़ामोश रह कर उनकी तरफ़दारी कर रहे हैं, जब इंसाफ़-पसंद आवाज़ें कमज़ोर हो चुकी हैं, तब दूसरी क़ौम को भी अपने बचाव की तैयारी करनी चाहिये।
ये तैयारी क्या हो? कैसे हो? कौन करे? ये एक सवाल है, जो अहम है। एक तैयारी तो ये है कि मुस्लिम उम्मत भी हथियार उठाए। उसके नौजवान भी जंगी ट्रेनिंग हासिल करें। मगर क्या ये मसले का हल है? मैं समझता हूँ कि भारत जैसे देश में ये मसले का हल नहीं है। बल्कि इससे और मसले पैदा होंगे। इसके बावजूद अपने बचाव का हक़ हर इंसान को क़ानून में दिया गया है। क़ानूनी तौर पर सेल्फ़-डिफ़ेन्स की तैयारी करना कोई बुराई नहीं है। इस लिहाज़ से मुस्लिम इलाक़ों में समाज के ज़िम्मेदार लोग क़ानून की हदों में अपनी आबादियों को महफ़ूज़ बनाने की प्लानिंग कर सकते हैं। अलबत्ता इस हिफ़ाज़त का दायरा केवल मुसलमानों तक महदूद न हो, बल्कि इस दायरे को इंसानियत का दायरा बनाया जाए।
एक मुसलमान से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वो अपनी आबादियों में रह रहे ग़ैर-मुसलिमों पर हाथ उठाए। उनका दीन इसकी इजाज़त नहीं देता। उनका चमकता हुआ इतिहास इस पर गवाह है कि मुसलमानों ने अपनी जान जोखिम में डाल कर ग़ैरों की हिफ़ाज़त की है। मेरी उन नौजवानों से गुज़ारिश है कि जो क़ौम के लिये फ़िक्रमंद दिल रखते हैं कि वो ख़ुद को इसके लिए तैयार करें कि अगर दुश्मन ताक़तें उनको लुक़मा समझने की भूल करें तो उन्हें लोहे के चने चबाने पड़ें।
तैयारी का एक पहलु क़ानूनी है। अभी संविधान में वो तमाम धाराएँ मौजूद हैं, जो नफ़रत फैलानेवालों को जेल की सलाखों के पीछे पहुँचा सकती हैं। देश के स्तर पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे इदारे की सरपरस्ती में या मुस्लिम जमाअतों की निगरानी में वकीलों की एक तंज़ीम क़ायम हो जो क़ानूनी कार्रवाई करे। ये क़ानूनी कार्रवाई भी उस वक़्त तक जारी रहे जब तक कि मामला अपने आख़िरी अंजाम को न पहुँच जाए। अक्सर ऐसा होता है कि हम क़ानूनी कार्रवाई करते हैं, अलग-अलग इलाक़ों में एफ़-आई-आर दर्ज कराई जाती है, लेकिन उनका बेहतर तरीक़े से फ़ॉलो-अप नहीं होता, जिसकी वजह से कोई अच्छा नतीजा बरामद नहीं होता।
बाबरी मस्जिद के सिलसिले में हम ये देख चुके हैं। क़ानूनी तैयारी के सिलसिले में ये बात भी सामने रहनी चाहिये कि हम ख़ुद भी क़ानून की पाबन्दी करें, ख़ास तौर पर हमारे तालीमी और वेलफ़ेयर के इदारे इसका भरपूर ख़याल रखें। क़ानून का इल्म हासिल करना भी ज़रूरी है। हर बस्ती में ऐसे दो-चार लोग होने चाहियें जो क़ानून का इल्म रखते हों, ताकि वक़्त ज़रूरत क़ानून से मदद ली जा सके।
जंग का एक हथियार तालीम है। ये बात इत्मीनान के लायक़ है कि मिल्लत का रुझान तालीम की तरफ़ बढ़ा है। मुस्लिम लड़कियाँ भी तालीम हासिल कर रही हैं। लेकिन अभी एक बड़ी तादाद में हमारे पास स्कूल नहीं हैं। इसलिए इस तरफ़ भी तवज्जोह की ज़रूरत है। हर बस्ती में अच्छे स्टैण्डर्ड के इदारों की ज़रूरत है। हमारे बीच बहुत-से लोग हैं जो तलीम का काम कर रहे हैं, हालाँकि उनकी तादाद उत्तर भारत में कम है। दक्षिणी भारत के मुसलमान मुबारकबाद के लायक़ हैं कि उन्होंने पिछले चालीस साल में ख़ुद को तालीमी मैदान में आत्मनिर्भर बनाया है, वो लोग उत्तर भारत के लिये भी हमदर्दी रखते हैं। इस तजुर्बे को शुमाली हिन्द में भी आज़माना चाहिये। अगर तालीमी इदारों या तालीम का काम अंजाम देनेवालों का गठबन्धन हो जाए, चाहे पूरे देश के स्तर पर न भी हो केवल राज्य स्तर पर हो तो तालीम के मैदान में प्लानिंग के साथ कोशिश की जा सकती है। तालीम एक ऐसा ज़रिआ है जो आत्मनिर्भर भी बनाएगा और महफ़ूज़ भी।
तैयारी का एक पहलु अख़लाक़ी भी है जिसे नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। जो क़ौम अखलाक़ी गिरावट का शिकार हो जाती है, वो पतन का भी शिकार हो जाती है। अख़लाक़ में ख़ास तौर पर हमारे मामलात हैं। हम ख़ुद से भी ईमानदार नहीं हैं, दूसरों के साथ क्या ईमानदार होंगे। इस टॉपिक पर इतना कुछ लिखा जा चुका है कि अब लिखने की ज़रूरत नहीं, इसी अख़लाक़ का हिस्सा एकता है। जिसकी ज़रूरत सब महसूस करते हैं, लेकिन अमल कोई नहीं करता। चाहे वह राजनीतिक एकता हो या दीनी और समाजी। एकता के नाम पर नई-नई तंज़ीमें वजूद में आईं, लेकिन सरबराही के नाम पर बिखर कर रह गईं। हमारी अख़लाक़ी कमज़ोरी में ये बात भी शामिल है कि हम चाहते हैं कि ग़ाज़ी और मुजाहिद पड़ोसी के घर में पैदा हों।
मेरी गुज़ारिश है कि कम से कम वो अख़लाक़ी ख़ूबियाँ अपने अन्दर पैदा की जाएँ जो किसी समाज की तरक़्क़ी के लिये ज़रूरी हैं। मैं आपसे नमाज़-रोज़े की माँग नहीं करता, मैं नहीं कहता कि आप दाढ़ी रखें या टोपी लगाएँ, इसके लिये पूरी जमाअत मौजूद है, ये आपकी दीनी ज़िम्मेदारी है, ये आपका और ख़ुदा का मामला है। लेकिन मैं चाहता हूँ कि आप सच्चाई, वफ़ादारी, ख़ुलूस, मुहब्बत, अहद की पाबन्दी और इमानदारी को अपनाएँ। जो क़ुव्वतें आज दुनिया की हुक्मराँ बनी बैठी हैं वो भले ही ख़िंज़ीर का गोश्त खाती हैं या शराब के जाम लुंढाती हैं लेकिन इज्तिमाई तौर पर उनके यहाँ वो अख़लाक़ी ख़ूबियाँ पाई जाती हैं, जिनका ज़िक्र मैंने ऊपर किया है।
याद रखिये कोई भी मज़बूत और बुलंद इमारत मज़बूत बुनियाद पर ही बनाई जा सकती है। इसी तरह क़ौमों की इमारत भी मज़बूत बुनियाद पर ही बनाई जा सकती है। बुनियाद की ईंटे पूरी इमारत का बोझ उठती हैं, लेकिन इस बात की शिकायत नहीं करतीं कि हमपर मकान-मालिक ने रोग़न नहीं किया। हमारा नाम नहीं लिया, हमें नुमायाँ जगह नहीं दी गई। अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि हमारे पास बुनियाद की ईंटे नहीं हैं। हममें से हर आदमी बिना काम किये एक बड़ी पोज़ीशन चाहता है। पोज़ीशन हासिल करने के लिये भाग-दौड़ करता है, न मिलने पर इज्तमाइयत को नुक़सान पहुँचाने लगता है, इस्लाम के ग़लबे में नबी (सल्ल०) के एक लाख से ज़्यादा सहाबा ने अपना-अपना किरदार अदा किया है, हम लोग उनमें से दस-बीस सहाबा के नाम ही जानते हैं। अगर तमाम सहाबा अपने नाम, पोज़ीशन और नुमायाँ होने के लिये जिद्दोजुहुद करते तो इस्लाम को ग़लबा कैसे नसीब होता।
भारतीय मुसलमान इन्तिहाई नाज़ुक मोड़ पर हैं, करो या मरो की पोज़ीशन है। भारतीय मुसलमानों को मज़बूत क़िले की ज़रूरत है, जो उनके लिये महफ़ूज़ पनाहगाह हो। मौजूदा हालात से निपटने के लिये ये भी ज़रूरी है कि बुनियाद की ईंटें जुटाई जाएँ। हम ख़ुद बुनियाद की ईंट बनें, क़ौमों के हालात बदलने के लिये लोगों को क़ुर्बानियाँ देनी पड़ती हैं।
मेरी दर्दमंदाना अपील है अपने सभी साथियों से, अपनी क़ौम के ज़िम्मेदार लोगों से, कि जिस तरह आप अपने घर की तामीर, तरक्क़ी और ख़ुशहाली के लिये क़ुर्बानियाँ देते हैं, उसी तरह बल्कि उससे भी ज़यादा अपनी क़ौम और अपने मुल्क की भलाई के लिये क़ुर्बानी दें। हमेशा ये आरज़ू करें कि आप बुनियाद की ईंट बन जाएँ, जिसे कोई देखता न हो, जिसकी कोई तारीफ़ न करता हो। ये यक़ीन रखिये कि अल्लाह सब कुछ देखता और जानता है, वो इन्साफ़ करने वाला है, वो आपको बुनियाद में रहने के बाद भी नवाज़ेगा, जब वो आपका नाम बुलंद करना चाहेगा तो फिर आप को कोई नीचे नहीं गिरा सकता।
(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक कलीमुल हफ़ीज़ दिल्ली एआईएमआईएम के अध्यक्ष हैं)