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सम्पादकीय

घोषित से अघोषित आपातकाल की ओर भारतीय लोकतंत्र

25 जून 1975 को देश में कांग्रेस की सरकार का नेतृत्व कर रही पूर्व प्रधानमंत्री स्व इंदिरा गांधी की अनुशंसा पर आंतरिक व्यवधानों को आधार बनाकर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा कर दी। आपातकाल के घोषणा के साथ ही देश में विपक्ष के नेताओं को चुन-चुनकर गिरफ्तार या नजरबंद किया जाने लगा। इसका मुख्य कारण देश में आंतरिक शांति में व्यवधान को बताया गया। लेकिन ये व्यवधान पैदा कैसे हुई, इसपर भी चर्चा करना समय की जरूरत है। इंदिरा गांधी से 1971 के चुनाव में हांर के बाद समाजवादी नेता राजनारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में इस चुनाव को चुनौती यह कहकर दिया कि इंदिरा गांधी ने सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल इन चुनावों में किया है। 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा ने राजनारायण के वकील शांति भूषण के दलीलों पर उनके पक्ष में फैसला सुनाते हुए इंदिरा गांधी को अयोग्य घोषित कर दिया। इस चुनाव को रद्द करने के पीछे जो दलील दी गयी वो चौंकाने वाली थी। कांग्रेस उस वक्त अंतर्कलह से गुजर रही थी, जिसमें 1969 में संगठन में दो फाड़ के बाद 1971 के आम चुनाव में कांग्रेस(आर) के विजय ने कुछ विराम लगाया था लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस फैसले ने संगठन में इंदिरा के विरोधियों को मौका दे दिया। गुजरात में छात्रों के नव निर्माण आंदोलन ने राज्य के शिक्षा मंत्री के खिलाफ असंतोष में जबरदस्त आंदोलन किया। इंदिरा ने हालात समझते हुए वहां की सरकार को ही भंग कर दिया। आपातकाल को लेकर जिस प्रकार से समाजवादी या दक्षिणपंथी छात्र संगठनों ने देश में अपने पक्ष में माहौल बनाया है वो राजनीति से प्रेरित रही हैं। चुनी हुई सरकार जिसमें 518 में से 352 सदस्यीय कांग्रेस बहुमत में थी उसको लगातार अस्थिर करने के लिए कई नेताओं ने गुप्त आंदोलन छेड़ रखा था। ऐसा नहीं है कि इस आपातकाल में केवल विपक्ष के नेताओं को ही नजरबंद या जेल में भेजा गया था बल्कि कांग्रेस के अंतर्कलह के नेताओं को भी अलग थलग किया जा रहा था।
आपातकाल की बरसी पर जब उस दौर कर हालात की समीक्षा की जाती है तो यह निश्चित अवधारणा के अनुरूप की जाती है। इस कारण बहुत से ऐसे मामले थे जो वर्तमान परिचर्चा में गौण हो जाते हैं। वर्तमान दौर में आपातकाल के इतिहास को बताने वाले उसी आपातकाल के नाम की रोटी सेंककर सत्ता के करीब पहुंचे हैं और अक्सर इस आंदोलन में छिपी सत्ता लोलुपता को छिपा ले जाते हैं। आपातकाल ने निश्चित तौर पर देश में भय का माहौल बनाया और आम लोगों की कई नागरिक अधिकारों को लंबित कर दिया था लेकिन जब आज के दौर में उन 21 महीनों के आपातकाल की समीक्षा की जाती है तो बहुत से अनसुलझे सवाल छोड़ जाती है। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने प्रेस स्वतंत्रता को नियंत्रित किया और प्रेस के अधिकारों को सीमित किया था। इस बात का सबसे ज्यादा हाय तौबा अब तक मचता है। लेकिन वर्तमान दौर की राजनीति को जब आपातकाल से जोड़ा जाता है तो कमोबेश घोषित आपातकाल से भयावह स्थिति वर्तमान अघोषित आपातकाल के नजर आता है।
वर्तमान दौर में प्रेस की स्वतंत्रता को नए नियम कायदों से बांधकर नियंत्रित करने का कुत्सित प्रयास हो रहा है। सरकार द्वारा अध्यादेश लाकर संसद की विधायी ताकतों को क्षीण किया जा रहा है। सरकार में वन मैन आर्मी की तानाशाही छवि के साथ देश के विपक्ष पर लगातार नियंत्रण और उसमें फूट डालने के प्रयास किये जा रहें हैं। अघोषित आपातकाल की स्थिति बनाकर सत्ता प्रतिष्ठानों से हरकारा निकल रहें हैं और आम इंसानों को उस हरकारे के आगे घुटने टेकने को विवश किया जा रहा है। जिस आपातकाल की बरसी पर लोग गले फाड़ के चिल्ला रहे हैं वो मात्र 21 महीनों के था लेकिन वर्तमान दौर में यह आपातकाल 2014 से अघोषित रूप से चल रहा है। भारतीय राजनीति में आपातकाल के कथित नायक आज सत्ता नियंत्रण में लगे हैं और उस दौर की भयावहता को वापस से आमजन के भीतर घर करा रहे हैं। जैसे समाजवादियों ने उस दौर में सत्ता के खिलाफ प्रदर्शन किया लेकिन कालान्तर में वो उसी दल के गलबहियां में समा गए ठीक वैसे ही वर्तमान दौर में हालात के आगे मजबूर कांग्रेसी नेता अपने दल से मजबूरन सत्ता के सानिध्य के आस में भाजपा के आगोश में बैठने को आतुर हैं।
दिल्ली हाईकोर्ट के हालिया फैसले में अपनी टिप्पणी को टँकित करते हुए कहा कि आंदोलनों और प्रदर्शनों को आतंकवाद से जोड़कर वर्तमान सरकार द्वारा देखा जा रहा है। जबकि लोकतंत्र में आंदोलन और प्रदर्शन इसकी जड़े मजबूत करते हैं। वर्तमान दौर में सरकार के खिलाफ किसी भी प्रदर्शन या आंदोलन को सरकार के शीर्ष में बैठे हुक्मरानों द्वारा देश विरोधी करार गतिविधि के रूप में देखा जाना आपातकाल के उस दौर को ही वापस लाने जैसा है। सरकार द्वारा उठाये जा रहें प्रत्येक कदम को सरकारी मशीनरी के इस्तेमाल से चमकाने की व्यवस्था अब भी है और चुनावी राजनीति में सरकारी मशीनरियों के दुरुपयोग की व्यथा भी आज भी है। लेकिन अफसोस है कि अब ना तो कोई राजनारायण है और ना ही कोई छात्र आंदोलन।
1975 के आपातकाल और वर्तमान के आपातकाल में केवल घोषित और अघोषित का फर्क है। वो आपातकाल एकमुश्त लागू किया गया था जबकि इस आपातकाल में किश्तों में नागरिक अधिकारों का हनन किया जा रहा है।

(लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में मीडिया अध्ययन विभाग के शोध छात्र हैं)

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