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1979 से अबतक ईरान ने इतने भारी जनाज़े उठा लिए हैं कि अब हर ताबूत हल्का नज़र आता है, राष्ट्रपति और विदेश मंत्री तक की मौत किसी ईरानी को विचलित नहीं करती: जैगम मुर्तजा

1 फरवरी, 1979 को तक़रीबन चौदह बरस के वनवास के बाद आयतुल्लाह सैयद रुहुल्लाह ख़ुमैनी तेहरान पहुंचे। शहर में मार्शल लाॅ लगा था लेकिन ख़ुमैनी के आने की ख़बर सुनकर लाखों लोग सड़कों पर उतर आए।
मेहराबाद हवाई अड्डे के बाहर एक हंगाम मचा था। हर कोई अपने नेता की एक झलक पाना चाहता था। मेहराबाद से आज़ादी स्क्वेयर तक पैर रखने की जगह न थी।

आयतुल्लाह ख़ुमैनी का विमान उतरा तो लोगों ने घेर लिया। नारे लगने लगे। लोगों को लगा आयतुल्लाह ख़ुमैनी सबसे पहले अपने घर जाएंगे लेकिन उनके ऐलान ने लोगों को चौंका दिया। “मुझे बहिश्ते ज़हरा जाना है। मैं अपने शहीदों से मिलना चाहता हूं।”

बहिश्ते ज़हरा दुनिया के सबसे बड़े सैन्य क़ब्रिस्तानों में से एक है। इस वक़्त यहां तक़रीबन 16 लाख क़ब्र हैं। इनमें 1979 की क्रांति, ईरान-इराक़ युद्ध, सउदी अरब पुलिस के हाथों 1987 में मारे गए क़रीब दो हज़ार हाजियों, 1988 में अमेरिकी मिसाइल से गिराए गए ईरान एयर फ्लाइट 655 के 290 बदनसीब यात्रियों, 1988 में अमेरिकी हमले में मारे गए 55 नौसैनिकों के अलावा आतंकी हमलों, सीरिया-लेबनान में जान ग॔वाने वाले आईआरजीसी जवानों, बसीजियों, इज़रायल-अमेरिका का निशाना बने वैज्ञानिकों और ख़ुद आयतुल्लाह ख़ुमैनी समेत ईरान के कई दूसरे प्रमुख नेताओं और हस्तियों की क़ब्रें शामिल हैं।

बहरहाल, 2018 में मैं पहली बार बहिश्ते ज़हरा गया तो वहां मेरी मुलाक़ात रोस्तम फराज़ादेह से हुई। उनकी उम्र तब क़रीब 19 साल रही होगी। रोस्तम तेहरान विश्वविद्यालय में फिज़िक्स के छात्र थे और बहिश्ते ज़हरा में अपने भाई की क़ब्र पर आए थे। उनका भाई मेहदी इराक़-सीरिया में आईएसआईएस विरोधी अभियान में शहीद हुए हज़ारों नौजवानों में से एक था। ‘मौजूदा हालात में अपने भविष्य क्या देखते हो’, मैंने रोस्तम से सवाल किया तो उनकी आंखें ख़ुद ब ख़ुद भाई की क़ब्र की तरफ घूम गईं। मैंने कहा फिज़िक्स पढ़ रहे हो। कुछ बड़ा काम करो। शहादत से बड़ा क्या काम हो सकता है, रोस्तम का जवाब था।
रोस्तम मुझे थोड़ा आगे बने एक चौक तक ले गए। उन्होंने बताया कि सामने जो मचान बनी है, इसी पर खड़े होकर आयतुल्लाह ख़ुमैनी ने तेहरान वापसी पर अपना पहला भाषण दिया था।

इस चौराहे से एक तरफ तमाम क़ब्रें ईरान के व्यापारियों, कारोबारियों और प्रमुख हस्तियों की हैं। एक तरफ तमाम मौलवी और आयतुल्लाह दफ्न हैं। वहां खड़े होकर उन्होंने कहा कि इस तरफ कोई नहीं आना चाहता। यहां सबकी आरज़ू है उस तरफ दफ्न हों जहां तमाम फौजियों और शहीदों की क़ब्र हैं। और मैं अपना भविष्य उधर ही देखता हूं।
रोस्तम कोई अनोखी बात नहीं बता रहे थे। आप ईरान में घूमिये तो अपको लगेगा कि शहादत को जितना महिमामंडित यहां किया गया है कहीं और नहीं। इसकी एक वजह शायद कर्बला है। शिया बहुल होने की वजह से बचपन से ही ईमाम हुसैन की शहादत लोगों की ज़िंदगी का अटूट हिस्सा बन जाती है। दूसरी बड़ी वजह अली शरीयती और मुर्तज़ा मुताहिरी जैसे चिंतकों की शिक्षाएं हैं। इन दोनों ने लोगों को पढ़ाया और समझाया कि कर्बला सिर्फ रोने या मातम करने का विषय नहीं है, बल्कि कर्बला हमें क्रांति के उस रास्ते पर ले जाती है जहां मौत क़यामत तक के लिए महान बना देती है। ज़ुल्म के ख़िलाफ लड़ना और जान दे देना हर इंसान पर फर्ज़ है।

प्रोफेसर अली शरीयती ने मुहर्रम के जुलूस और मजलिसों को क्रांति का केंद्र बना दिया और शहादत को सर्वोच्च ध्येय।
इसका असर देखने के लिए आपको उत्तरी तेहरान जाना पड़ेगा। यह ईरान का वो इलाक़ा है जहां मुल्क के सबसे रईस लोग रहते हैं। कुछ घरों के आंगन में बने स्विमिंग पूल और छतों पर बने हेलिपैड इसकी तस्दीक़ करते हैं। यहां हर आठ-दस घरों में से एक के दरवाज़े पर आपको फोटो के साथ किसी का संक्षिप्त परिचय लिखा हुआ दिखेगा। यह नेमप्लेट नहीं है बल्कि उस घर से शहीद हुए नौजवान का परिचय है। 1979 की क्रांति के बाद ईरान शायद ही कोई ख़ानदान होगा जिसने अपना कम से कम एक सदस्य नहीं खोया है। बड़ी बात है कि मुल्क पर मरने वालों में अमीर उमरा की भी हिस्सेदारी है। सारी ठेकेदारी ग़रीब, ग़ुरबा या किसानों के बच्चों के सिर पर नहीं है।

इससे भी बढ़कर बात ये है कि साढ़े आठ-नौ करोड़ की आबादी वाले इस मुल्क में बहिश्ते ज़हरा जैसे क़ब्रिस्तानों की तादाद एक या दो तक महदूद नहीं है।
मुल्क के हर शहर, क़स्बे में शहीदों की क़ब्र प्रमुखता से मिल जाएंगी। जिन शहीदों की शिनाख़्त नहीं हो पाती उनका डीएनए सैंपल और क़ब्र संख्या संभाल कर रखना सरकार की ज़िम्मेदारी है। शहीदों के परिवार का पूरा ख़र्च सरकार के ज़िम्मे है। पहचान न हो पाने वाले शहीद रुहुल्लाह ख़ुमैनी और ईरान के फरज़ंद हैं। किसी क़ब्र पर एक संख्या और फरज़ंदे रुहुल्लाह लिखा दिखे तो समझ जाइए शहीद है लेकिन लाश की शिनाख़्त नहीं हो पाई या कोवर्ट आपरेशंस में मारा गया कर्मी है जिसकी शिनाख़्त छिपाई गई है।

इसलिए जब हम क़ासिम सुलेमानी जैसे कमांडर या हुसैन अमीर अब्दुलाहियान, या सैयद इब्राहीम रईसी जैसे लोगों को मौत के ख़ौफ से बेख़बर लगातार सीरिया, इराक़, या लेबनान में सफर करते देखते हैं तो बाक़ी दुनिया के लिए यह हैरानी की बात होती है, किसी ईरानी के लिए नहीं।

ईरान में यह कहावत आम है कि हम बिस्तर में ये सोचकर जाते हैं कि सुबह को जब आंख खुलेगी तो क़यामत आ चुकी होगी। इसलिए सुप्रीम लीडर सैयद अली ख़ामेनेई समेत तमाम लोग बिना किसी ख़ास सुरक्षा या तामझाम के घूमते हैं। यह जानते हुए कि वो सब निशाने पर हैं। आप ईरान जाइए और बिना ख़ास मशक़्क़त के किसी भी बड़े नेता से मिल लीजिए। ऐसा लगता है मानो किसी को कोई डर नहीं। हर शख़्स बस मौत के इंतज़ार में बैठा है।

1979 से अबतक ईरान ने इतने भारी जनाज़े उठा लिए हैं कि अब हर ताबूत हल्का नज़र आता है। राष्ट्रपति और विदेश मंत्री तक की मौत किसी ईरानी को विचलित नहीं करती। क्योंकि ऐसा न पहली बार हुआ है और न आख़िरी बार।

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक जैगम मुर्तजा वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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