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सम्पादकीय

तथाकथित सेक्युलर पार्टियों की जगह अपनी लीडरशिप पर भरोसा करने का वक़्त आ गया है

देश के हालात की संगीनी और उसके दूर तक पड़ने वाले असर और नतीजों को हर समझदार शहरी अच्छी तरह जानता है। देश में इस वक़्त जमहूरियत एक मज़ाक़ बनकर रह गई है। सेक्युलरिज़्म का नाम लेनेवाली तमाम पार्टियाँ उत्तर प्रदेश में अपनी चुनावी मुहिम की शुरुआत भगवान राम के आशीर्वाद से कर रही हैं। जम्हूरियत के सारे सुतूनों में साम्प्रदायिकता की दीमक लग गई है। फ़िरऔनीयत नंगा नाच नाच रही है। अद्ल और इन्साफ़, अमन व क़ानून धीरे-धीरे इतिहास का हिस्सा बनते जा रहे हैं।

हर आनेवाला दिन गुज़रे हुए दिन से बदतर है। बेरोज़गारी और महँगाई में बढ़ोतरी का दर्द झेल रही जनता को धर्म की वैक्सीन लगाई जा रही है। देश में मुसलमान भी अपने ऐतिहासिक दौर से गुज़र रहे हैं। शायद इतिहास में कभी मुनाफ़िक़ मुसलमानों की इतनी तादाद आसमान ने नहीं देखी जितनी हम देख रहे हैं। ख़ुद-ग़रज़ी और मफ़ाद-परस्ती अपने उरूज पर है। मज़हबी इदारे मायूसी का शिकार हैं और मुस्लिम सियासी रहनुमा अपने ही ख़ून से सींची हुई सियासी जमाअतों में बे-वक़अत होकर जीने पर मजबूर हैं।

मेरे नज़दीक आज़ाद भारत में मुसलमानों की सबसे बड़ी सियासी ग़लती ये रही कि इन्होने अपनी सियासी पार्टी को किनारे लगाकर तथाकथित सेक्युलर मसीहाओं पर भरोसा किया। हमारी मज़हबी और मिल्ली जमाअतों ने उनके लिये वोट की अपीलें जारी कीं। मुसलमानों ने आज़ाद, नेहरू, इन्दिरा और राजीव गाँधी पर यक़ीन किया। कॉंग्रेस के हाथ में हाथ ऐसा दिया कि हाथ कटा दिया लेकिन छोड़ा नहीं। बाबरी मस्जिद के गिरा दिये जाने के बाद उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह और मायावती, बिहार में लालू प्रसाद, पश्चिमी बंगाल में ज्योति बसु, उनके बाद ममता, दिल्ली में शीला दीक्षित, उनके बाद अरविन्द केजरीवाल ये सब मुसलमानों के मसीहा बनकर उठे और उनके ज़ख़्मों पर नमक छिड़कते रहे।

मुसलमान उत्तर से दक्षिण तक इन तथाकथित सेक्युलर पार्टियों के धोखे का शिकार होते रहे। तमाम सेक्युलर पार्टियाँ बीजेपी का ख़ौफ़ दिखाकर ठगती रहीं। मुसलमान मुस्लिम लीग, मजलिस इत्तिहादुल-मुस्लेमीन और दूसरी मुस्लिम पार्टियों को ये कहकर नज़र-अन्दाज़ करते रहे कि इनको वोट करने से हिन्दू वोट एक हो जाएगा और बीजेपी जीत जाएगी। इसके बावजूद हिन्दू वोट एक हो गया और बीजेपी जीत गई। मुस्लिम लीडरशिप और मुस्लिम बुद्धिजीवी मुस्लिम लीडरशिप वाली पार्टियों से केवल इसलिये भागते रहे कि इनपर साम्प्रदायिक होने का लेबल लग जाएगा।

साम्प्रदायिकता और क़ौम-परस्ती का डर आज तक हमारे ज़ेहनों पर छाया हुआ है। अगर अपनी क़ौम के मसायल उठाना साम्प्रदायिकता है तो फिर दलितों की बात करने पर मायावती, जाटों की बात करने पर जयन्त चौधरी, यादवों की बात करने पर अखिलेश सिंह को भी साम्प्रदायिक कहा जाना चाहिये। हमें डर और दहशत के ख़ौल से बाहर आना चाहिये और हम जहाँ भी हों और जिस पार्टी में भी हों हमें निडर होकर अपने क़ौमी इशूज़ को उठाना चाहिये।

क़ौम के इशूज़ को आख़िर कौन तैयार करेगा, उन्हें जम्हूरी इदारों में कौन उठाएगा? मेरी राय है कि अपनी पार्टी, अपनी लीडरशिप, अपना झंडा होगा तो हम अपनी बात जम्हूरियत के हर प्लेटफ़ॉर्म पर कह सकते हैं। हमारी सिसकियों, आहों और कराहों की आवाज़ हर जगह सुनाई दे सकती है। सेक्युलर पार्टियों की 75 साला कारकर्दगी को देखने के बाद भी क्या हमारे ज़ेहनों में ये फ़ुतूर है कि हमारे मसायल सेक्युलर पार्टियाँ हल कर सकती हैं। क्या रोज़ाना मॉब-लिंचिंग, बेगुनाहों की गिरफ़्तारियाँ हमें बेदार करने के लिये काफ़ी नहीं हैं। हम रोज़ाना मारे जा रहे हैं मगर सेक्युलर मसीहाओं ने इसको रोकने के लिये क्या किया?
क्या अब भी वक़्त नहीं आया है कि हम अपनी लीडरशिप को मज़बूत करें। आख़िर कब तक हम दूसरों की जूतियाँ सीधी करते रहेंगे। कब तक हम अपनों पर शक करते रहेंगे? और उन्हें बीजेपी का एजेंट बताते रहेंगे। उत्तर प्रदेश में अगर सौ सीटों पर मजलिस के लड़ने से बीजेपी को फ़ायदा होगा तो केजरीवाल के चार सौ तीन सीटों पर चुनाव लड़ने से किसको फ़ायदा होगा। कभी हमने पक्षपात का चश्मा हटाकर देखा कि बीजेपी की बी टीम कौन है। किन पार्टियों ने कॉंग्रेस को ठिकाने लगाकर बीजेपी को रास्ता दिया। क्या बीएसपी जिसने बीजेपी के साथ हुकूमतें बनाईं और इस वक़्त भी उसने बीजेपी के साथ सरकार बनाने का इशारा दिया है बीजेपी की एजेंट नहीं हो सकती?

मुलायम सिंह जिसको हमने मुल्ला का ख़िताब दिया उसने जौहर यूनिवर्सिटी रामपुर को बचाने में क्या किरदार निभाया? आज़म ख़ान और उनकी फ़ैमिली जेल में सड़ने, गलने के लिये छोड़ दी गई और मुलायम सिंह का सारा ख़ानदान सत्ता के मज़े लूटता रहा। आख़िर उत्तर प्रदेश में इटावा मेनपुरी में ही बीजेपी क्यों हार रही है इस पर हमने कभी ग़ौर किया? लेकिन हमें तो अपनों में कीड़े निकालने की ऐसी आदत पड़ गई है कि दुश्मन और दोस्त में फ़र्क़ करना भूल गए हैं। मैं आपके सामने मजलिस की वकालत नहीं कर रहा हूँ, बल्कि मेरा मुद्दआ ये है कि आप अपनी ताक़त बनें, आप जिस मुस्लिम पार्टी पर यक़ीन करते हों, जिस लीडर से मुहब्बत करते हों उसको मज़बूत करें।

आनेवाले साल में कई राज्यों में चुनाव होनेवाले हैं। उनमें उत्तर प्रदेश भी शामिल है। मेरी राय है कि उन राज्यों के वो विधानसभा क्षेत्र जहाँ मुसलमान वोट निर्णायक है या प्रभावी है उन विधानसभा क्षेत्रों में अपनी लीडरशिप वाली पार्टी का तज्रिबा किया जाना चाहिये। इसका फ़ायदा ये होगा कि इन क्षेत्रों में मुस्लिम इशूज़ पर खुलकर बात भी होगी और काम भी होगा। ये विधायक सेक्युलर पार्टी की हुकूमत बनने में मददगार भी होंगे। मिसाल के तौर पर तिलंगाना में मजलिस की सात सीटें हैं, ये साथ विधायक चूँकि अपनी लीडरशिप से ताल्लुक़ रखते हैं इसलिये मुस्लिम इशूज़ पर खुलकर बोलते हैं, सरकार पर भी दबाव बनाते हैं और अल्लाह का शुक्र अदा कीजिये कि मजलिस की वजह से वहाँ की सरकार मुसलमानों की तरक़्क़ी के लिये काम करने पर मजबूर है।

वहीँ उत्तर प्रदेश में समाजवादी सरकार में 66 मुसलमान विधायक थे और मुज़फ़्फ़र नगर की घटना हो गई और अब भी 25 मुस्लिम विधायक होने के बावजूद कोई काम करना तो दूर उनकी आवाज़ भी सुनाई नहीं देती। अगर हम ये तय कर लें कि अपनी मेजोरिटी वाली सीटों पर अपनी लीडरशिप को वोट करेंगे और ऐसी सीटों पर जहाँ हम किसी को जिता सकते हैं वहाँ अपना वोट ऐसे कैंडिडेट को देंगे जो साम्प्रदायिक ताक़तों को हरा सकता हो, तो हम एक ऐसी सरकार के वुजूद की उम्मीद कर सकते हैं जो हम पर डिपेंड हो और हमारे इशूज़ हल करने के लिये मजबूर हो।

मेरी राय है कि अपनी सियासी लीडरशिप पर भरोसा करने का ये बिलकुल सही वक़्त है। एक ऐसी सियासी लीडरशिप जो मुसलमानों के साथ-साथ देश के इन्साफ़-पसन्द हिन्दू, दलित, पिछड़े और मज़लूम की आवाज़ हो, उस लीडरशिप का एजेंडा देश में संविधान की हिफ़ाज़त, अद्ल व इन्साफ़ की बहाली, अम्न व क़ानून को क़ायम करना हो। मुझे ये बात स्वीकार है कि सारे मुसलमान एक प्लेटफ़ॉर्म पर नहीं आ सकते, मगर मेजोरिटी तो आ सकती है।

अपनी लीडरशिप से मेरी मुराद ये भी नहीं है कि हिन्दुओं की मुख़ालिफ़ होगी, बल्कि उसमें इन्साफ़-पसन्द सेक्युलर हिन्दू भाइयों को इज़्ज़त दी जाएगी। असल में मौजूदा इक़्तिदार देश, क़ौम और इन्सानियत के लिये तबाहकुन है और मौजूदा अपोज़िशन की बेवफ़ाइयों की वजह से इस पर कोई यक़ीन करने को तैयार नहीं। मेरी मुख़लिसाना अपील है सियासी व समाजी रहनुमाओं से और दीनी और जनकल्याणकारी तंज़ीमों के ज़िम्मेदारों से कि इस नाज़ुक वक़्त में अपने इख़्तिलाफ़ों को भूलकर एक हो जाएँ, अपनों पर भरोसा करें, आज हम अपने ज़ाती फ़ायदों और हितों या अपनी अना और अहं की ख़ातिर आपस में लड़ते रहेंगे तो कल हमारा वुजूद ही ख़त्म हो जाएगा।

हर चन्द ऐतिबार में धोखे भी हैं मगर।
ये तो नहीं किसी पे भरोसा किया न जाए॥

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक कलीमुल हफ़ीज़ एआईएमआईएम दिल्ली के अध्यक्ष हैं)

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