Journo Mirror
भारत

परिसीमन के नाम पर आरक्षित सीटों ने कैसे मुस्लिम राजनीती को खत्म किया है? आईए उदाहरण के साथ समझे

आजकल परिसीमन का मुद्दा काफ़ी चर्चा में हैं इसके बारे में विस्तारपूर्वक जानने के लिए हमें सबसे पहले परिसीमन के बारे में जानना होगा. बढ़ती जनसंख्या के आधार पर समय समय पर लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों की सीमाओं को निर्धारित करने की प्रक्रिया को परिसीमन कहते हैं।

ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि हमारे लोकतंत्र में आबादी के हिसाब से एससी और एसटी समुदाय को उचित प्रतिनिधित्व मिल सके, लेकिन आजकल एससी/एसटी समुदाय को उचित प्रतिनिधित्व देने की आड़ में मुस्लिम राजनीति को एक सोची समझी साज़िश के तहत ख़त्म किया जा रहा हैं।

आपको बता दें कि आखिरी बार 2009 में कांग्रेस पार्टी के शासन काल में लोकसभा सीटों का परिसीमन हुआ था जिसमें बहुत सारी मुस्लिम बहुल सीटों को एससी/एसटी समुदाय के लिए आरक्षित करके वहां से मुस्लिम राजनीती को लगभग समाप्त कर दिया गया है।

इन सीटों के समीकरण इस प्रकार थे कि यहां से कोई भी मुसलमान आसानी से चुनाव जीत सकता था, राजनीतिक तौर पर हाशिये पर धकेले गए मुस्लिम समुदाय को इन सीटों से आसानी से मुस्लिम सांसद मिल सकते थे. लेकिन परिसीमन के बाद ये सीटें एससी/एसटी समुदाय के लिए रिज़र्व करके यहां से मुस्लिम राजनीति को लगभग खत्म कर दिया गया हैं।

आईए कुछ उदाहरण के ज़रिए समझते हैं….

राजमहल

झारखंड की एक लोकसभा सीट है राजमहल ये सीट आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित है. इस सीट पर मुस्लिम आबादी 34 फीसदी हैं और आदिवासी समाज की आबादी 29 फीसदी है. मुसलमानों की ज्यादा गिनती होने के बावजूद भी इस सीट को ST समुदाय के लिए आरक्षित कर रखा है।

रांची

इसी प्रकार झारखंड की ही एक और लोकसभा सीट है रांची. इस सीट पर भी आदिवासी समाज के वोटर 29 फीसदी है मगर ये सीट आरक्षित न हो कर जनरल है. इस सीट पर मुस्लिम आबादी 15.5 % है।

करीमगंज 

असम की करीमगंज लोकसभा सीट जहां मुस्लिम आबादी बहुमत में 56% है और दलित आबादी केवल 12 फीसदी है मगर फिर भी ये सीट SC समुदाय के लिए आरक्षित है।

ज़हीराबाद

तेलंगाना विधानसभा की एक सीट है ज़हीराबाद जिसको 2009 में परिसीमन के बाद दलित आरक्षित कर दिया गया था. इस सीट पर लगातार दो बार 1999 और 2004 में कांग्रेस के मोहम्मद फरीदुद्दीन चुनाव जीते है और वाई.एस.आर. रेड्डी की सरकार में 2004 में अल्पसंख्यक कल्याण और मत्स्य पालन मंत्री भी बने थे।

इस विधानसभा के आरक्षित होने के बाद फरीदुद्दीन अम्बरपेट से चुनाव लड़े थे मगर चुनाव हार गए थे. 2014 में उन्होंने BRS को ज्वाइन किया जिसके बाद उन्हें तेलंगाना विधान परिषद का सदस्य चुना गया था।

जबलपुर पूर्व

मध्य प्रदेश में एक विधानसभा है जबलपुर पूर्व जो दलित समुदाय के लिए आरक्षित है. इस सीट पर मुस्लिम आबादी लगभग 26 फीसदी है. चूंकि ये विधानसभा सीट आरक्षित हो गयी है तो मुस्लिम राजनीति यहां पर ख़त्म ही समझा जाएं क्योंकि यहां मुस्लिम उम्मीदवार जीतना तो दूर चुनाव भी नहीं लड़ सकता है।

मनिहारी

बिहार की मनिहारी विधानसभा सीट 39% मुस्लिम आबादी के बावजूद आदिवासी समाज के लिए क्यों आरक्षित है? जबकि यहां आदिवासी आबादी केवल 13% है।

कुर्ला 

महाराष्ट्र की कुर्ला विधानसभा में 31 फीसदी मुस्लिम मतदाता है। इस सीट पर केवल 13.7% दलित होने के बावजूद ये सीट परिसीमन के नाम पर आरक्षित है। 

धारावी 

महाराष्ट्र की धारावी विधानसभा भी 34% मुस्लिम मतदाता होने के बावजूद परिसीमन के नाम पर दलित आरक्षित है। यहां पर केवल 16 फीसदी दलित मतदाता हैं।

बलरामपुर

बलरामपुर विधानसभा में 25 फीसदी मुस्लिम मतदाता होने के बावजूद परिसीमन के नाम पर ये सीट दलित आरक्षित है। यहां पर OBC और सामान्य वर्ग के लोगों की भी एक बड़ी गिनती चुनाव में अहम भूमिका निभाती है जबकि दलित आबादी केवल 14% है।

फरीदपुर

उत्तर प्रदेश के बरेली की फरीदपुर विधानसभा सीट जहां 3 लाख से ज्यादा मतदाता है और उसमें अनुमानित एक तिहाई मुस्लिम मतदाता होने के बावजूद परिसीमन में दलित आरक्षित किया गया है। यहां पर दलित आबादी केवल 16 फीसदी है।

गोपालगंज 

बिहार की गोपालगंज लोकसभा सीट जहां 17% मुस्लिम आबादी है और केवल 12% दलित आबादी है इसके बावजूद परिसीमन के नाम पर इसको दलित आरक्षित सीट किया हुआ है।

औरंगाबाद

वहीं दूसरी तरफ 29 फीसदी दलित मतदाता वाली सीट औरंगाबाद जनरल कैटागरी में है। इस सीट पर 12% मुस्लिम आबादी भी है।

भगवानपुर

उत्तराखंड की भगवानपुर विधानसभा सीट भी परिसीमन के तहत आरक्षित सीट है। करीब 1.12 लाख मतदाता वाली इस सीट पर सर्वाधिक 35% मुस्लिम मतदाता हैं। जो क्षेत्र के प्रमुख बड़े गांव सिकरौढ़ा, सिरचंदी, सिकंदरपुर भैंसवाल, खेलपुर, मोहितपुर आदि में निवास करते हैं। 26% दलित और शेष सैनी, गुर्जर, ब्राह्मण, ठाकुर, जाट, कश्यप, त्यागी आदि जाति- बिरादरी के वोटर हैं।

इस विधानसभा सीट पर पिछले दो चुनाव से कांग्रेस का कब्ज़ा है मगर इसको बसपा की मजबूत गढ़ में गिना जाता है जहाँ इनका वोट शेयर दूसरे नंबर पर रहता है। 2007 और 2012 का विधानसभा चुनाव बसपा यहाँ से जीत चुकी है। 

गुलबर्गा 

कर्नाटक की हसन लोकसभा सीट पर दलित आबादी 20% है इसके बावजूद ये सीट जनरल है मगर इसके उल्ट 23 फीसदी मुस्लिम मतदाता वाली गुलबर्गा सीट को दलित आरक्षित किया गया है। 

कच्छ 

गुजरात की कच्छ लोकसभा सीट 22 फीसदी मुस्लिम मतदाता होने के बावजूद परिसीमन के नाम पर आरक्षित सीट है। यहां दलित आबादी केवल 11 फीसदी है। जबकि इससे ज्यादा दलित आबादी वाले बनासकांठा लोकसभा सीट को जनरल कैटोगरी में रखा है। वजह साफ़ है क्यूंकि वहां मुसलमान केवल 1.7% फीसदी हैं।

पूरनपुर

इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिला की एक विधानसभा सीट है पूरनपुर. इस जगह को मिनी पंजाब भी कहा जाता है. पूरनपुर विधानसभा को 2009 के परिसीमन में दलित आरक्षित कर दिया है. पिछले दो विधानसभा चुनाव से यहां से भाजपा के बाबू राम पासवान चुनाव जीत रहे है. 2007 में यहां से बसपा के सिंबल पर अरशद खान चुनाव जीत चुके हैं।

अगर मैं इस सीट के जातीय समीकरण की बात करूँ तो यहां मुस्लिम समुदाय के लगभग 67 हजार मतदाता है, दूसरे नंबर पर 42 हजार ब्राह्मण और 43 हजार लोध किसान मतदाता है. इसके अलावा 22 हजार सिख और 28 हजार बंगाली मतदाता भी अहम हैं. अब आप खुद अंदाजा लगाये परिसीमन के नाम पर इस विधानसभा सीट को आरक्षित कर के मुसलमानों और ब्राह्मणों को चुनावी खेल से ही बाहर कर दिया है, न ये समुदाय चुनाव लड़ें और न ही चुनाव जीतें।

आरक्षित सीट का क्या पैमाना होता है

आखिर परिसीमन में आरक्षित सीट करने का क्या पैमाना होता है जबकि उसी समाज किए बराबर आबादी के बावजूद एक मुस्लिम बहुल सीट को आरक्षित की कैटोगरी में डाला जाता है वहीं दूसरी सीट को जनरल ही रहने दिया जाता है।

आखिर क्यों न माना जाये कि परिसीमन के नाम पर आरक्षित सीट के खेल की वजह से मुस्लिम राजनीती ख़त्म होती जा रही है. आरक्षित सीट का सबसे बड़ा नुकसान तो यही है कि मुसलमान का वहां चुनाव जीतना तो दूर उसको वहां पर चुनाव लड़ने से भी वंचित कर दिया जाता है।

(यह लेख Ansar Imran SR ने लिखा हैं लेखक काफ़ी समय से इस मुद्दे पर रिसर्च कर रहें हैं)

Related posts

Leave a Comment