यह तस्वीर इस बात की गवाह है कि आम धारणा के अनुरूप सहिष्णु बहुसंख्यक समाज के अंदर पलने वाले असहिष्णु नारंगी हाइब्रिड आक्रमणकारी, उपद्रवी, और शरारती हो चुके हैं।
जिस गली मोहल्ले चौक चौराहों से शोभायात्रा गुजर रही है प्रशासन पहले ही आकलन कर चुका होता है कि यात्रा में मौजूद असामाजिक तत्व मस्जिद को नुकसान पहुंचाएंगे. लिहाजा मस्जिद को पूरे तिरपाल से ढकने का चलन शुरू हो गया।
पिछले कुछ वर्षों में शोभायात्रा धार्मिक आस्था ना होकर अपना वर्चस्व साबित करने का एक हथियार बन चुका है. मस्जिद के सामने से शोभायात्रा गुजरते ही मुस्लिम समाज के ऊपर आपत्तिजनक नारे, डीजे पर गालियां देते हुए गाने, तलवार और त्रिशूल के दम पर उकसाने का कार्यक्रम बदस्तूर जारी है।
लेकिन यह परंपरा कोई आज की नहीं नहीं है, इसका इतिहास 100 वर्ष पुराना है जब 1923 में संघ के संस्थापक सदस्य गोलवलकर, सावरकर और उनके गुरु ने डिंडी सत्याग्रह की शुरुआत की, इसमें वह लोग मस्जिद के सामने पहुंचकर ढोल नगाड़े के साथ अपने वर्चस्व का प्रदर्शन करते थे और महाराष्ट्र के कई इलाकों में इसका प्रचलन शुरू हो गया. एक तरफ महात्मा गांधी देश ने को जोड़ने के लिए और अंग्रेजों से लड़ाई के लिए डांडी सत्याग्रह की शुरुआत की थी वही आर एस एस के लोग देश में सांप्रदायिक नफरत को बढ़ाने के लिए डिंडी सत्याग्रह कर रहे थे।
इस काम में उनकी मदद अंग्रेज पैसे देकर किया करते थे ताकि आजादी की लडाई को धक्का पहुंचे और सामूहिक तौर से लड़ी जा रही जंगे आजादी को कमजोर किया जा सके।
संघ के पदाधिकारी इस षड्यंत्र में शामिल थे. 1937 के अहमदाबाद कन्वेंशन में संघ के पदाधिकारियों ने साफ कर दिया था कि जब तक भारत का विभाजन नहीं हो जाता और हिंदू राष्ट्र के लिए मार्ग प्रशस्त नहीं हो जाता तब तक हम आजादी की लड़ाई में नहीं शामिल होंगे।
इतिहास में कई काले कारनामे इनके नाम दर्ज हैं मगर मैं सिर्फ कुछ ही चीजों का जिक्र कर रहा हूं. डिंडी सत्याग्रह का जिक्र करना इसलिए लाजमी था क्योंकि इसी के संदर्भ में आज देश भर में ऐसे हालात बन रहे हैं कि शोभायात्रा के नाम पर लगातार संप्रदायिक दंगे हो रहे हैं और एक भीड़ भगवा कपड़ा पहन कर के मुसलमानों को उकसाने का काम करती है जिसमें गंदी गंदी गालियां आपत्तिजनक नारे शामिल होते हैं।
दरभंगा से लेकर बड़ौदा तक कई ऐसे वीडियो सामने आए हैं जिसमें सामने से उकसाने का काम किया जा रहा है. इसमें राजनीतिक लाभ भी हैं और अपना वर्चस्व साबित करने का चरम सुख भी. सहिष्णु मुस्लिम समाज इसका तमाशा खामोशी से देखता रहता है और इंतजार कर रहा है कि कब सरकार में बैठे हुए हमारे तथाकथित हितैषी इस घृणित मानसिकता को और विषैली परंपरा को समाप्त करने का काम करेंगे।
इसमें कोई शक नहीं कि भारत का अधिकतर बहुसंख्यक समाज सहिष्णु और समझदारी से काम लेता है मगर पिछले कुछ सालों में कट्टरवादी मानसिकता बड़ी तेजी से बढ़ी है जिसको रोकने की जिम्मेदारी भी हमारे बहुसंख्यक समाज के लोगों की है. जिस छवि को बरसों से सहेज कर रखा गया वह अब धूमिल होती हुई दिख रही है. मैं आशा करता हूं कि आने वाले समय में समाज अपने जिम्मेदारियों को समझेगा और भारत की सांझी सभ्यता, सांझी विरासत और गंगा जमुनी तहजीब का उदाहरण पेश करेगा।
(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक डॉ. शोएब जामाई इंडियन मुस्लिम फाउंडेशन के चेयरमैन हैं)