मनीष गुप्ता और उनकी पत्नी जैसों को लगता है कि योगी राज में तभी समस्या है जब पीड़ित सवर्ण हो. अगर उस सिस्टम का शिकार कोई दलित, OBC, मुस्लिम है, तो ये तो शासन पद्धति का रूटीन काम है, उसपर कैसी चिंता?
न जाने कितने मुसलमान इस दौरान मारे गए, ऐसे लोग तब भी योगी समर्थक बने रहे, खुद पीड़ित हुए तो न्याय की दुहाइयाँ दीं, लेकिन जैसे ही कुछ रियायत मिली तुरंत प्रचार में लग गईं। और साबित करने भी लग गईं कि रामराज है.
उन्हें एक पल के लिए याद नहीं आया कि उनसे पहले योगी शासन ने कितने मासूमों को कुचला है, कितनों के घर बर्बाद किए हैं।
मनीष गुप्ता की पत्नी का दर्द समझ सकता हूँ. मगर योगी शासन का शिकार केवल वे नहीं हैं इसलिए केवल उन्हें मुआवज़ा मिल जाने से ही योगी “न्यायपूर्ण” नहीं हो जाते।
जिन लोगों को योगी शासन हर रोज़ कुचलता है, अगर वे लेखक, पत्रकार, दबे कुचले लोग ही अवाज़ न उठाते तो उन्हें कोई पूछने वाला नहीं था। पुलिस ने तो कह ही दिया था कि गिरकर मौत हुई है.
अगर योगी शासन की और अधिक चलती तो ये साबित कर देता कि मनीष गुप्ता ने जानबूझकर ज़मीन पर गिरकर मौत चूमी है।
मनीष गुप्ता की हत्या कोई एक घटना नहीं थी बल्कि यूपी में पुलिसिया सिस्टम का रेगुलर इवेंट था. सवाल मुआवज़ा नहीं था बल्कि इस सिस्टम के शीर्ष पर बैठे आदमी के इंसान होने पर था.
अगर वह इंसान है तो सबसे लिए न्याय करता, अगर वह इंसान नहीं है तो एक आदमी को मुआवज़ा मिल जाने से उसके सिस्टम को क्लीनचिट नहीं मिल जाती. ऐसे सिस्टम के शीर्ष पर बैठे आदमी को क्लीनचिट देकर आप भी उसके अत्याचारों में हिस्सेदार हो जाती हैं, मुआवज़ा सवाल नहीं है, सवाल “सम्पूर्ण न्याय” का है, जो दलितों, मुसलमानों, आदिवासियों, कमज़ोरों, पीड़ितों, वंचितों के लिए भी बराबर होता. लेकिन आप तो अपना न्याय लेकर निकल जा रहे हैं.
(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक श्याम मीरा सिंह पत्रकार हैं)