ग़ाज़ा में पिछले दो वर्षों से जो कुछ हुआ, उसे “युद्ध” कहना सच्चाई के साथ नाइंसाफी होगी। यह कोई युद्ध नहीं था—यह एकतरफ़ा जनसंहार था। जब किसी इलाके में टैंकों, बमों और ड्रोन की बरसात हो, और सामने सिर्फ़ बच्चे, औरतें और बेघर नागरिक हों, तो उसे युद्ध नहीं कहा जा सकता। यह दरअसल “जनसंहार” है—और आज का युद्ध-विराम इसी जनसंहार का अस्थायी ठहराव है, न कि शांति का आरंभ।
अमेरिका और इज़रायल: जनसंहार के साझेदार
इस पूरी त्रासदी में इज़रायल अकेला दोषी नहीं है। अमेरिका उसकी हर बर्बरता में बराबर का भागीदार रहा है। पिछले दो सालों में ग़ाज़ा पर गिराए गए हर बम, हर मिसाइल और हर टैंक शेल में अमेरिकी हथियार कंपनियों का नाम दर्ज है।
अमेरिकी प्रशासन ने न केवल इज़रायल को हथियार और गोला-बारूद दिया बल्कि उसके अपराधों को “आत्मरक्षा” का नाम देकर अंतरराष्ट्रीय कानून की धज्जियाँ उड़ाईं। वाशिंगटन से निकलने वाले हर बयान में वही पाखंड झलकता रहा कि “इज़रायल को अपनी सुरक्षा का अधिकार है।” लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी देश को सुरक्षा के नाम पर बच्चों और अस्पतालों पर बम गिराने का भी अधिकार है?
अमेरिका की दोहरी नीति इस जनसंहार में सबसे स्पष्ट रूप से सामने आई। यूक्रेन में रूस के ख़िलाफ़ “मानवता की रक्षा” का नारा लगाने वाला अमेरिका, ग़ाज़ा में मरते बच्चों के लिए अंधा और बहरा बना रहा। यही नहीं, अमेरिकी मीडिया ने भी इस जनसंहार को “कंफ्लिक्ट” और “वार” जैसे मुलायम शब्दों में ढकने की कोशिश की, ताकि उसकी सरकार की भूमिका पर सवाल न उठे।
यूरोपीय शासक: मौन समर्थन और दिखावटी संवेदना
यूरोप के शासक भी इस जनसंहार में कम जिम्मेदार नहीं हैं। ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और इटली ने एक ओर मानवाधिकारों की बात की, दूसरी ओर इज़राइल को लगातार आर्थिक और सामरिक सहायता दी। यूरोप के नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र में “सीज़फायर” की अपील तो की, लेकिन इज़रायल पर कोई ठोस दबाव नहीं बनाया। उनके लिए ग़ाज़ा के बच्चों की मौतें “कोलैटरल डैमेज” थीं—जैसे इंसान नहीं, आंकड़े हों।
संयुक्त राष्ट्र: सिर्फ़ बयान, कोई कार्रवाई नहीं
संयुक्त राष्ट्र, जो कभी विश्व-शांति का प्रतीक था, इस जनसंहार के दौरान अपनी सबसे शर्मनाक भूमिका में दिखा। जब ग़ाज़ा में अस्पताल जल रहे थे, बच्चे मलबे के नीचे दबे थे, और बमबारी से स्कूल मिटाए जा रहे थे—तब संयुक्त राष्ट्र सिर्फ़ “गहरी चिंता” और “निंदा” जैसे बयानों तक सीमित रहा। कई बार सुरक्षा परिषद की बैठकें हुईं, लेकिन हर बार अमेरिका ने वीटो का इस्तेमाल करके इज़रायल के ख़िलाफ़ किसी भी ठोस प्रस्ताव को रद्द कर दिया। इससे यह साबित हुआ कि संयुक्त राष्ट्र आज एक नैतिक संस्था नहीं बल्कि महाशक्तियों का औज़ार बन चुका है।
अरब शासकों की चुप्पी: सबसे गहरी चोट
सबसे दुखद भूमिका अरब शासकों की रही। वो देश जो खुद को “इस्लामी उम्मत” का प्रतिनिधि कहते हैं, दो साल तक ग़ाज़ा के मुसलमानों के नरसंहार पर चुप बैठे रहे।
सऊदी अरब, मिस्र, यूएई और जॉर्डन जैसे देश अमेरिका और इज़रायल के साथ अपने राजनीतिक और आर्थिक संबंधों में इतने बंधे हैं कि उन्होंने ग़ाज़ा की मदद को “राजनैतिक जोखिम” समझा। यह चुप्पी सिर्फ़ शर्मनाक नहीं बल्कि ऐतिहासिक अपराध है। क़िबला-ए-अव्वल (पहला क़िबला) की रक्षा का दावा करने वाले शासकों ने अपने ही भाइयों को मौत के हवाले कर दिया।
अब कथित ‘युद्ध-विराम’ लागू होने के बाद ग़ाज़ा की समुद्री सीमा पर इंसानों का सैलाब उमड़ आया। लगातार बमबारी और तबाही के बाद जब शुक्रवार दोपहर ‘युद्ध-विराम’ लागू हुआ तो पूरे क्षेत्र ने पहली बार सुकून की सांस ली। हज़ारों फ़िलिस्तीनी अपने बच्चों और बचे-खुचे सामान के साथ जब ग़ाज़ा लौटे तो उनकी आँखों में दर्द साफ़ झलक रहा था। पूरा मोहल्ला मलबे में दफ़न है। आस-पास के मकान ढह चुके हैं, बिजली-पानी बंद है और सड़कों का हाल क़ब्रिस्तान जैसा है।”
हाँ, यही है ग़ाज़ा — जहाँ राष्ट्रपति ट्रंप की तथाकथित ‘20 सूत्रीय शांति योजना’ को मानने के बाद शांति की कुछ उम्मीदें दिखाई दीं। ट्रंप ने इसे ‘पीस प्लान’ इसलिए कहा था ताकि उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार मिल सके, लेकिन उनकी ये उम्मीदें चकनाचूर हो गईं और यह पुरस्कार वेनेज़ुएला की अधिकार कार्यकर्ता मरिया मचाडो को मिला। ग़ाज़ा में इज़रायली हमलों में आई कमी को दुनिया ने ‘युद्ध-विराम’ कहा है, जबकि सच्चाई यह है कि यह कोई युद्ध नहीं बल्कि खुली आक्रामकता थी, जिसके नतीजे में ग़ाज़ा को पूरी तरह मिट्टी में मिला दिया गया। युद्ध दो पक्षों के बीच होता है, पर यहाँ एक ओर था इज़रायल का अत्याचार और दूसरी ओर थे निहत्थे, बेगुनाह फ़िलिस्तीनी – जिनका नस्लीय सफ़ाया करने में अत्याचारी इज़रायली ने कोई कसर नहीं छोड़ी।
फ़िलिस्तीनियों ने साबित कर दिया कि, गरिमा के साथ जीना क्या होता है
छले दो सालों में 67 हज़ार से ज़्यादा बेगुनाह शहीद हुए, जिनमें लगभग 18 हज़ार बच्चे शामिल हैं। बीस हज़ार बच्चे यतीम हो गए हैं। डेढ़ लाख से अधिक लोग घायल हैं। आधे से ज़्यादा अस्पताल बंद पड़े हैं और जो खुले हैं, उनमें दवाइयों व उपकरणों की भारी कमी है। ग़ाज़ा की 80% इमारतें, 90% स्कूल और लगभग 90% खेती-बाड़ी की ज़मीनें तबाह हो चुकी हैं। वहाँ 54 मिलियन टन से ज़्यादा मलबा पड़ा है, जिसे हटाने में एक दशक लग जाएगा।
7 अक्टूबर 2023 से शुरू हुई इस बर्बरता ने ग़ाज़ा को खंडहर बना दिया है। इन दो सालों में ऐसा कोई ज़ुल्म नहीं बचा जो इज़रायल ने वहाँ के मासूमों पर न किया हो। ग़ाज़ा की बीस लाख से अधिक आबादी जिन हालात में ज़िंदगी गुज़ार रही है, उसका अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है। पश्चिमी मीडिया से जो ख़बरें आती हैं, वे इतनी अधूरी हैं कि, उनसे असली तस्वीर सामने नहीं आती। इन दो सालों में ग़ाज़ा की सच्ची रिपोर्टिंग करने वाले सौ से अधिक पत्रकार मारे जा चुके हैं — कुछ तो ऐसे थे जिनके पूरे परिवार को मौत की नींद सुला दिया गया। इतने ही संयुक्त राष्ट्र के कर्मचारी भी मारे गए हैं।लेकिन ग़ाज़ा सिर्फ़ आँकड़ों का नाम नहीं है। यह उस जज़्बे, हिम्मत और सब्र का नाम है जो वहाँ के लोगों ने सबसे कठिन वक़्त में दिखाया।
इतना सब कुछ सहने के बावजूद एक भी फ़िलिस्तीनी ऐसा नहीं मिला जिसने रहम की भीख माँगी हो। यह अपने मातृभूमि के लिए लड़ने की वह सुनहरी मिसाल है जिसकी तुलना दुनिया में कहीं नहीं। अत्याचार के सामने झुकना देशभक्तों का काम नहीं होता — वे मौत को गले लगाना पसंद करते हैं मगर सर नहीं झुकाते। ग़ाज़ा के लोगों ने दुनिया को यही सिखाया कि वे अपने खून की आख़िरी बूँद तक अपने वतन और मस्जिद-ए-अक़्सा की रक्षा करते रहेंगे। दुनिया में ताक़त का पलड़ा चाहे ज़ालिमों के पक्ष में हो, मगर गरिमा के साथ जीना क्या होता है — यह फ़िलिस्तीनियों ने साबित कर दिया।
हमास का कहना है कि “7 अक्टूबर के बाद के दो साल तकलीफ़, नाइंसाफ़ी और ज़ुल्म से भरे हुए थे।” उसने कहा कि “ग़ाज़ा में आम नागरिकों की मौतों पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की शर्मनाक ख़ामोशी रही।” सच यही है — इस दो साल के दौरान जबकि इज़रायल ने ग़ाज़ा को तबाह कर दिया, दुनिया के कई देश चुप रहे, और उनमें सबसे घिनौना किरदार अमेरिका का रहा, जिसने संयुक्त राष्ट्र में हर युद्ध-विराम प्रस्ताव को विफल किया। अमेरिका की मदद से ही इज़रायल ने ग़ाज़ा में नर्क रचा। ऐसा पहली बार नहीं है जब इज़रायल की अवैध मौजूदगी के बाद से ही अमेरिका उसकी ढाल बना हुआ है। जब भी संयुक्त राष्ट्र में इज़रायल के ख़िलाफ़ प्रस्ताव आया, अमेरिका ने बेशर्मी से वीटो किया। सच तो यह है कि इज़रायल का अवैध वजूद पूरी तरह अमेरिका की देन है। और अब वही अमेरिका ‘शांति का दूत ’ बनकर सामने आया है!
भयंकर तबाही के बाद ट्रंप ने जो बीस सूत्रीय शांति योजना दी, उसके पीछे उनका मकसद नोबेल पुरस्कार था, लेकिन यह सपना अधूरा रह गया। योजना पर विचार के लिए हमास को भी बुलाया गया था, लेकिन इसका असली उद्देश्य इज़रायली बंधकों को छुड़ाना था जबकि, इस योजना में हमास को कमजोर करने की कई धाराएँ शामिल थीं।
फिर भी एक सुकून की बात यह है कि, जहाँ अमेरिका और कई देशों ने इज़रायल की बर्बरता पर चुप्पी साध ली, वहीं उन्हीं देशों के आम लोगों ने फ़िलिस्तीन के समर्थन में सड़कों पर उतरकर इंसानियत को ज़िंदा साबित किया। यूरोप, अमेरिका, लैटिन अमेरिका, अफ़्रीका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण और मध्य एशिया – हर देश, हर शहर, हर सड़क पर लोग इस सदी के सबसे बड़े अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने लगे।
संयुक्त राष्ट्र महासभा में जब युद्ध अपराधी नेतन्याहू भाषण देने पहुँचा तो कई मुस्लिम और गैर-मुस्लिम देशों के प्रतिनिधि हॉल से बाहर चले गए। दुनियाभर में इज़रायल के खिलाफ़ और फ़िलिस्तीन की आज़ादी के हक़ में प्रदर्शन हुए और नेतन्याहू की गिरफ्तारी की मांग उठी। अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय ने भी पिछले साल नेतन्याहू और उसके पूर्व रक्षामंत्री योआव गलांट के ख़िलाफ़ ग़ाज़ा में युद्ध अपराधों पर वारंट जारी किया था।
ग़ाज़ा जनसंहार के बाद इज़रायल पूरी दुनिया में बदनाम हुआ
इज़रायली अत्याचारों के चलते कई यूरोपीय देशों ने फ़िलिस्तीन को मान्यता दी है। स्पेन ने इज़रायल को हथियारों की आपूर्ति बंद कर दी है और कई देशों ने तो इज़रायल से कूटनीतिक रिश्ते तक तोड़ लिए हैं। नतीजतन, फ़िलिस्तीनियों पर किए गए अत्याचारों ने इज़रायल को पूरी दुनिया में बदनाम और अकेला कर दिया है। अब जब यह तथाकथित युद्ध-विराम लागू हो चुका है, देखना यह है कि, इज़रायल अपनी बात पर कब तक कायम रहता है। फ़िलहाल इतना कहा जा सकता है कि, ग़ाज़ा के खंडहरों में ज़िंदगी फिर से करवट ले रही है।
(यह लेखक के अपने विचार है, लेखक रिज़वान हैदर मिडिल ईस्ट मामलों के जानकार एवं पत्रकार है)

