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मुस्लिम आरक्षण की बात शुरू होते ही ज्यादातर दलित बुद्धिजीवी और नेता विरोध में क्यों खड़े हो जाते हैं?: अंसार इमरान

देश में जब भी मुसलमानों को आरक्षण देने की बातें होती है तो देश में एक बड़ी गिनती विरोध में खड़ी हो जाती है. हैरानी की बात तो ये है कि सालों से सामाजिक भेदभाव झेलने वाला दलित समुदाय जो आज देश में आरक्षण की वजह से कुछ हद तक मुख्यधारा में वापस लौटा है उसके अधिकतर नेता और बुद्धिजीवी विरोध करने वालों की कतार में सबसे अग्रणी होते है।

एक समुदाय जो खुद सदियों तक सामाजिक तौर पर भेदभाव झेल चुका हो वो ऐसी बातें करें तो हैरानी होना स्वाभाविक है. मुसलमानों पर पिछली कई सदियों से जो प्रताड़ना का दौर चल रहा है जिसने मुसलमानों की हालत को दलितों से भी बदतर कर दिया है क्या उसको सामाजिक प्रताड़ना की श्रेणी में नहीं रखा जायेगा?

एक तथाकथित दलित/ओबीसी स्वघोषित बुद्धिजीवी दिलीप मंडल जो कल तक मुसलमानों के आरक्षण का समर्थक था. सैंकड़ों आर्टिकल और भाषण दे चुके है मंडल महोदय भी आज कल मुसलमानों के आरक्षण के खिलाफ लामबंद हो चुके है।

तमाम मुस्लिम और दलित नेता दलित-मुस्लिम ऐकता की हामी भरते हुए नजर आते है मगर क्या इस रवैये के साथ ये एकता संभव है?

मुस्लिम नेताओं और धार्मिक गुरुओं की बात करें तो उन्होंने दलित मुस्लिम एकता के लिए न जाने कितने प्रोग्राम, सेमिनार और रैली कर चुके है. हमेशा दलित मुस्लिम राजनीतिक फैक्टर की बात करते है क्या वो इस बात का जवाब देंगे की मुस्लिम आरक्षण का विरोध करने वाले समाज के साथ कैसे गठजोड़ हो पायेगा. क्या ये मुहब्बत का पैग़ाम केवल एक तरफ़ा ही रहेगा?

आपने भी हजारों भाषण सुने होंगे जिसमें दलित नेता और बुद्धीजीवी मुसलमानों द्वारा आयोजित मंचों से भाजपा और संघ को हराने का कथित दावा करते हुए पाए जाते है मगर इनका ही समुदाय विधानसभा और लोकसभा में अधिकतर दलित आरक्षित सीटों पर भाजपा को बम्पर जीत दिलवा चुका है. मुसलमान तो आज भी भाजपा के विरोध में पूरी तरह लामबंद है मगर दलित समाज ही समझौता कर चुका है।

दलितों की कई राजनीतिक पार्टियां है जो उनकी नुमाईंदगी करती है या लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों में दलित नेताओं की एक अच्छी खासी नुमाईंदगी है मगर जैसे ही मुसलमान अपनी राजनीतिक पार्टी या विभिन्न राजनीतिक पार्टियों में भागीदारी की बात करता है तो अधिकतर लोग ये राग शुरू कर देते है कि ऐसा करने से वोटों का बंटवारा हो जायेगा, भाजपा जीत जायेगा आदि।

मुसलमानों के साथ हो रहा सामाजिक भेदभाव जो सरकारी और सामाजिक तंत्र में नीचे से लेकर ऊपर तक है वो अपने आप में ही मुस्लिम आरक्षण के लिए चीख-चीख कर गवाही दे रहा है. मुसलमानों की शैक्षणिक और आर्थिक बदहाली को दूर करने के लिए मुस्लिम आरक्षण समय की सबसे अहम जरुरत है।

एक कड़वा सच ये भी है कि मंडल आयोग (ओबीसी आरक्षण) ने मुसलमानों की राजनीतिक हैसियत को एक दम शून्य कर दिया है. 1990 से पहले तक 7 राज्यों में मुस्लिम मुख्यमंत्री हो चुके है. राजनीती में भी बड़े बड़े मुस्लिम धुंरधर पाए जाते थे जिन की सरकारों में हैसियत लगभग नंबर 2 होती थी मगर जैसे ही ये समाजवाद का दौर शुरू हुआ है मुसलमान केवल वोटर और भाजपा को हराने के काम के लिए बाकि रह गया है।

मुसलमान जो कभी शासक वर्ग में शामिल था, सरकारों का अहम हिस्सा होता था वो अब केवल वोट बैंक और सम्प्रदायक ताकतों को हराने की मशीन बन गया था. जैसे ही मुस्लिम हिस्सेदारी और भागीदारी की बात होती थी “भाजपा आ जायेगी” का राग इन समाजवाद वाले लोगों द्वारा शुरू हो जाता था. उन दिनों कांग्रेस तो खैर भाजपा का ही दूसरा रूप था जिसने हजारों मुसलमानों की जिंदगी आतंकवाद के नाम पर बर्बाद कर दी थी।

मुसलमानों को राजनीतिक तौर पर इतना डराया गया था कि वो भूल गया कि सत्ता की असल चाबी तो कहीं और है. मुसलमान तो यूँ ही रास्ता भटके मुसाफिर की तरह दलित-मुस्लिम एकता का बोझ किये प्रोग्राम और रैली में व्यस्त रहा. उधर दलित नेताओं ने भाजपा के साथ मिल कर कई बार सरकारें भी बना ली. ब्राह्मण जो सत्ता के असल केयर टेकर है उसको मुस्लिम जनता ने खामखा मनुवादी विचारधारा के नाम पर अपना दुश्मन घोषित कर रखा है।

एक आखिरी सवाल आज भी मुसलमानों के खिलाफ अत्याचार करने वालों में ज्यादातर लोग दलित और ओबीसी समाज के ही क्यूँ पाए जाते हैं?

(यह लेखक के अपने विचार हैं, लेखक अंसार इमरान पत्रकार एवं सोशल एक्टिविस्ट हैं)

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