इस लड़ाई की शुरआत 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात होती हैं. क्योंकि उसके बाद बहादुर शाह-1 के हाथ में कमान आई तथा उन्होंने कुछ शर्तो के साथ छत्रपति संभाजी के पुत्र शाहूजी को रिहा कर दिया था।
उसके बाद पेशवाओं ने छल कपट के ज़रिए मराठा साम्राज्य की पूरी कमान अपने हाथो में ले ली. उसके बाद पेशवाओं ने दलित समुदाय के लोगों पर जुल्म करना शुरु कर दिया।
पेशवाओं ने दलितों के लिए एक कानून बनाया जिसके तहत उनको कमर पर झाड़ू और गले में मटका बांधकर रहना होता था ताकि जब कोई भी महार (दलित) समुदाय का व्यक्ति रास्ते में चले तो उसके पैरों के निशान झाड़ू द्वारा मिटते रहे और वे थूंकना भी चाहे तो वह अपने गले की मटकी में ही थूके।
उस वक्त पूरे देश पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था. इसलिए महार समुदाय ने फैसले किया कि वह लोग ईस्ट इंडिया कंपनी को हराने के लिए पेशवाओं की सेना में भर्ती होंगे. लेकिन उनके इस निवेदन को पेशवाओं ने अपमानित ढंग से ठुकरा दिया।
यह बात जब अंग्रेजो को पता चली तो उन्होंने महार जाती के लोगों को अंग्रेजी सेना में भर्ती होने का न्योता भेजा. जिसको महार समुदाय ने कबूल कर लिया।
इसके बाद महार सैनिकों ने अपने अपमान का बदला लेने की ठानी तथा पेशवाओं से युद्ध का इंतजार किया।
इसी बीच जब 1 जनवरी 1818 को वह दिन आ गया जिसका महार सैनिकों को इंतज़ार था. ईस्ट इंडिया कम्पनी और पेशवाओं में युद्ध हुआ।
इस युद्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से 500 महार सैनिको ने भाग लिया जिसमें आधे घुड़सवार और आधे पैदल सैनिक थे. वहीं पेशवाओं की तरफ़ से 28 हजार सैनिक थे जिनमें 20 हज़ार घुड़सवार और 8 हजार पैदल सैनिक थे जिनकी अगुवाई पेशवा बाजीराव-2 कर रहे थे।
इस युद्ध में महार रेजिमेंट ने शौर्य के बल पर पेशवाओं को करारी हार दी. तथा पेशवाओं के साम्राज्य को खत्म कर दिया. महार रेजिमेंट की अभूतपूर्व अविस्मरणीय वीरता की यादगार में भीमा नदी के किनारे विजय स्तंभ का निर्माण करवाया गया. जिस पर महार सैनिकों के नाम लिखे गए हैं।