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कांशीराम ने आंबेडकर की वैचारिकी को असल मायने में ज़मीन पर उतारा है: डॉ. लक्ष्मण यादव

आज कांशीराम जी की जयंती है. कांशीराम जी को चाहने वाले उन्हें प्यार व सम्मान से मान्यवर, साहब कहते हैं. आज़ाद भारत की राजनीति के व्याकरण को बदलते हुए अपनी एक अलहदा पहचान क़ायम करने वाले सियासतदां रहे. ‘बहुजन वैचारिकी’ के इस सियासी शिल्पकार ने अथक मेहनती व ज़मीनी संघर्ष के चलते साइकिल को ज़रिया, तो हाथी को प्रतीक बनाया।

कन्याकुमारी, कोहिमा, कारगिल, पुरी व पोरबंदर से दिल्ली के लिए साइकिल यात्राएँ कीं. भारत के गाँव गिरांव को पढ़ने व बदलने के लिए ख़ुद भी साइकिल चलाते थे. घर, नौकरी, सुख सब छोड़ कर निकले, तो बस लड़ते भिड़ते चलते चले गए. ये व्यक्तित्व आकर्षण पैदा करता है।

कांशीराम ने आंबेडकर की वैचारिकी को असल मायने में ज़मीन पर उतारा. जिस ‘बहुजन’ समाज के लिए कांशीराम ने ऐसी अनूठी मेहनत की, तब उस तबक़े में राजनीतिक आत्मविश्वास सामाजिक शोषण के चलने नगण्य था, जिसके चलते शुरुआत में उनके साथ भीड़ नहीं खड़ी हो पाई. संसाधन भी नहीं थे, तब भी ये कर दिखाया. न बैंक में कोई खाता खोला, न अपना घर बनवाया, न कोई संपत्ति बनाई. सब मिशन का बनाया. वंचितों शोषितों के मन में शासक वाला आत्मविश्वास पैदा करके एक एक रुपए जोड़कर आंदोलन खड़ा किया.

कांशीराम जितनी अहमियत राजनीतिक हिस्सेदारी की लड़ाई की मानते थे, उससे कहीं अधिक सामाजिक व सांस्कृतिक आंदोलन की ज़रूरत को समझते व जीते थे. बामसेफ, DS4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) उस सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलन के केंद्र बनाए, तो BSP राजनीतिक पार्टी बनाई. ‘बहुजन’ शब्द के तहत राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक आधार पर दलित, पिछड़े, आदिवासी, मुस्लिम, सिख को जोड़कर 85 फ़ीसदी आवाम को एकजुट करने का ख़्वाब देखा. इसकी बानगी है यह नारा.

‘मंडल कमीशन लागू करो,
वरना कुर्सी खाली करो.’

आप कांशीराम के तमाम राजनीतिक फ़ैसलों से सहमत-असहमत हो सकते हैं. लेकिन आप इस शख्सियत को उपेक्षित करके आज़ाद भारत में वंचितों शोषितों के संघर्षों का राजनीतिक इतिहास नहीं पढ़ पाएँगे. इसने एक ऐसी मिशनरी लकीर खींची, जिस पर चलना उनके सियासी वारिसों तक के लिए भी बेइंतहां मुश्किल रहा. भटकाव पार्टी ही नहीं, समाज तक में आ गया. ऐसे बहुआयामी सामाजिक जीवन में रहे राजनेता का समग्र मूल्यांकन पीढ़ियाँ ज़रूर करेंगी.

‘कांशीराम तेरी नेक कमाई,
तूने सोती कौम जगाई.’

‘ठाकुर बाभन बनिया छोड़,
बाकी सब हैं डीएस फ़ोर.’

‘अब वोट हमारा राज तुम्हारा,
नहीं चलेगा नहीं चलेगा.’

‘मिले मुलायम कांशीराम,
हवा हो गए जय श्री राम.’

आज राजनीति में चुनौतियों की शक्ल भले बदली हुई नज़र आए, लेकिन अपनी बुनियाद में ये संघर्ष शोषक बनाम शोषित ही है. शोषितों की एका बनाने के नाम पर वामपंथी राजनीति का वैचारिक खोखलापन जाति की कसौटी पर जितना जगजाहिर हुआ, उतना ही बहुजन राजनीति का वैचारिक खोखलापन सांस्कृतिक व आर्थिक मोर्चे को नज़रअंदाज करने के चलते सामने आया।

बहुजन वैचारिकी के आर्थिक व सांस्कृतिक पहलुओं को अप्रतिम त्याग, मिशनरी समर्पण व आत्महंता ज़ोखिमों के काँधे चढ़ाकर ही हम जीतता हुआ देख सकते हैं. मान्यवर कांशीराम ने फासिस्ट ताकतों से ताकत ली और फासिस्टों ने उनसे. कांशीराम की विरासत इस प्रयोग में बुरी तरह हारी, फासिस्ट संघियों को इसका लाभ मिला. इसका मूल्यांकन करना होगा.

सामाजिक न्याय की एक नई मुकम्मल ज़मीन रचकर ही हम उन फ़ासिस्ट, मनुवादी, सामंती ताक़तों को हरा सकते हैं. जब जब ऐसी कोशिशें की जाएँगी, तब तब ऐसी शख्सियतें अपनी हरेक ख़ूबियों व ख़ामियों के साथ याद की जाएँगी. अगर ऐसा न हुआ, तो ये सारी कुर्बानियां बेज़ा रिसती फिसल जाएंगी और पीढ़ियों के हाथ रेत सा कुछ न बचेगा. ये बात उनके चाहने वालों को समझना होगा. इसीलिए कहता हूं ‘दिल बड़ा करें और नाक छोटी.’

कांशीराम जी को जिस एक वजह से सबसे ज़्यादा पसंद करता हूँ, वह है सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक बदलावों के लिए सांस्कृतिक आंदोलन की अहमियत को तवज्जो देना. उन्होंने बहुजन एकजुटता की अवधारणा के साथ इस आंदोलन की बुनियाद रची, अफ़सोस कि उनकी राजनीतिक व सामाजिक विरासत में यह आवाज मद्धिम पड़ती गई. संवैधानिक समानता व न्याय का वैचारिक रास्ता यहीं से होकर जाएगा।

(साभार: डॉक्टर लक्ष्मण यादव के ट्वीटर से)

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