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सम्पादकीय

राजनीति केवल तस्वीर छपवाने का नाम नही है नेताओं को फ़ोटो गैलरी से बाहर आना होंगा

आज के राजनीतिक हालात पर क़ौम की सेवा और राजनीति के शब्द एक-दूसरे के उलटे दिखाई देते हैं, हालाँकि क़ौम की सेवा और देशहित के नाम पर ही सारी राजनीति होती है।

राजनीति करने वाला हर आदमी सेवा करना चाहता है। आप किसी से भी मालूम कर लीजिये कि “जनाब आप राजनीति में क्यों आ रहे हैं? जवाब होगा “क़ौम की सेवा करने के लिये।”

लेकिन जब आप राजनीति करने वाले नेताओं के गरेबानों में झाँक कर देखेंगे तो क़ौम की सेवा का दम भरने वाले ये सेवादार, स्वामी नज़र आएँगे।

मैं पिछले बीस-तीस साल से राजनेताओं को दिन भर राजनीति के नाम पर जो काम करते देख रहा हूँ वो इसके सिवा कुछ नहीं है कि नेताजी के दालान और कोठी पर हर शाम लोग जमा होते हैं, चाय और हुक़्क़ा पीते हैं, इधर-उधर की बातें बनाते हैं और चले जाते हैं। या यह कि किसी के नालायक़ बेटे को पुलिस पकड़ कर ले जाती है और नेताजी उसे छुड़वा कर लाते हैं।

कहीं नेताजी का इस्तेमाल गली, मोहल्ले के मसले हल कराने में किया जाता है, जहाँ नेताजी अपने वोटों को ध्यान में रख कर फ़ैसला करते हैं। अगर कोई सत्ता में आई हुई पार्टी का लीडर है तो उसका एक इस्तेमाल दुकानों और प्रोग्रामों का फ़ीता काट कर उट्घाटन करना भी है।

यह भी देखा गया है कि कुछ लोग अपनी सोसाइटी, ट्रस्ट और स्कूल के नाम पर दाहिने हाथ से लेते हैं और उसमें से एक बड़ा हिस्सा बाएँ हाथ से वापस कर देते हैं और लेने-देने वाले दोनों लोगों का काम हो जाता है, नेताजी की ब्लैक-मनी दूध की तरह सफ़ेद हो जाती है।

अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के शिक्षा मंत्री सतीश चंद ने ग़रीबों के कोटे में अपने भाई को नियुक्त किया और नतीजा यह हुआ कि भाई की मुहब्बत में बहुत कुछ सुनना पड़ा।

मतलब यह कि सेवा के नाम पर करप्शन और भ्रष्टाचार का ऐसा खेल खेला जा रहा है कि अब सेवा का शब्द बोलते हुए डर लगता है।

इसके अलावा चुनाव के मौसम में नारे, रेलियाँ, जलसे-जुलूस भी राजनीति की उपलब्धियों में गिने जाते हैं। जिसमें क़ौम की सेवा का राग बड़े ज़ोर-शोर से अलापा जाता है।

मैं बाक़ी सभी कामों से इत्तिफ़ाक़ रखता हूँ अगर उनमें भ्रष्टाचार न हो, मुझे कोई ऐतराज़ नहीं अगर कोई बे-गुनाह को पुलिस से छुड़ाने का काम करे या मुजरिमों से तौबा कराए। लेकिन क्या राजनीति इसी का नाम है? क्या समाज में इन्साफ़ क़ायम करना और समाज की ज़रूरतों का इंतिज़ाम करना राजनीति का हिस्सा नहीं हैं?

ये बातें मैं इसलिए कह रहा हूँ कि जब मैंने राजनीति में क़दम रखा और ज़मीन पर काम करने के लिए तालीम, सेहत और रोज़गार देने का फ़ैसला किया, जब मैंने कहा कि मरीज़ों की देख-भाल की जाए और मिस्कीनों को खाना खिलाया जाए तो मेरे कुछ शुभचिन्तकों ने कहा कि ये काम राजनितिक पार्टी के करने के नहीं हैं बल्कि ये काम एनजीओ करती हैं।

असल में इस समय हमारे देश में राजनीति और समाज सेवा के डिपार्टमेंट अलग-अलग हो गए हैं। कुछ सरकारी और ग़ैर-सरकारी सामाजिक संगठन हैं जो स्कूल, अस्पताल क़ायम कर रही हैं या स्कॉलरशिप और वज़ीफ़े बाँट रही हैं और राजनीतिक पार्टियाँ राजनीति के नाम पर वह काम कर रही हैं जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया है।

जनता का मिज़ाज भी कुछ ऐसा हो गया है कि वह लाखों रुपये का राशन बाँटने वालों को लीडर नहीं बनाते बल्कि शराब बाँटने वालों को अपना लीडर बनाते हैं, वे समाज में नफ़रत पैदा करने वालों और आग लगाने वालों को अपना वोट देते हैं लेकिन अपनी बस्ती के शरीफ़ इंसान की केवल तारीफ़ करके रह जाते हैं।

सैकड़ों स्कूल और कॉलेज क़ायम करने वाली शख़्सियतें केवल एक प्रशस्ति पत्र की हक़दार होती हैं और सैकड़ों स्कूलों में नाइंसाफ़ी करने वाले शिक्षा मंत्री बन जाते हैं।

मेरे सामने ऐसी दर्जनों मिसालें हैं। हर राज्य में समाजसेवा करने वालों के साथ यही हो रहा है कि वो स्टेज की शोभा तो बनाए जा रहे हैं लेकिन उनसे पार्लियामेंट की शोभा भी बढ़ाई जाए इस तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया जाता है।

मुझे बताइये अगर अल-अमीन के बनाने वाले डॉ मुमताज़ मरहूम को हम पार्लियामेंट में पहुँचा देते तो हमारे एजुकेशन सिस्टम में एक इन्क़िलाब न आ जाता?

जो शख़्स बग़ैर किसी सरकारी सहायता के ढाई सो एजुकेशनल इंस्टिट्यूट बना सकता है वो सरकार में रह कर ढाई लाख एजुकेशनल इंस्टिट्यूट्स न बनाता?

ऐसी बहुत-सी हस्तियाँ आज भी हैं, मुझे उनका नाम लेने की ज़रूरत नहीं है। उन्हें आप ख़ुद देख सकते हैं, उनके दिल हमारे नुक़सान पर तकलीफ़ महसूस करते हैं, वो अपने इदारों को बनाने और जनता की सेवा में अपनी ज़िन्दगी लगा देते हैं। जब तक जनता अपना मिज़ाज नहीं बदलेगी लीडर नहीं बदलेगें। या तो समाजी सेवकों को सियासत में आना चाहिए या राजनेताओं को ख़िदमते-ख़ल्क़ के मफ़हूम को समझना चाहिए।

सोशल-प्लेटफ़ॉर्म्स की बेहतरीन मिसालें आप को मिस्र और टर्की में मिल जाएँगी। मिस्र में इख़्वानुल-मुस्लिमीन और टर्की में तय्यब अर्द्गान की पार्टी ने समाज-सेवा के मैदानों में अपने वक़्त की हुकूमतों से भी ज़्यादा संगठित और बड़ा काम किया है। यही वजह है कि इन दोनों देशों की जनता को जब जब आज़ादाना चुनाव का मौक़ा मिला है तो जनता ने इन दोनों को पार्लियामेंट में पहुँचाया है।

अब वक़्त आ गया है कि समाज-सेवा का काम करने वाले उठें और सियासत में शामिल हो कर संसाधनों का सही इस्तेमाल करें। अगर वो हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे तो हालात और भी ज़्यादा बिगड़ते चले जाएँगे।

करप्शन जिस हद तक इस वक़्त राजनीति की रगों में घुस चुका है उसे देख कर ऐसा लगता है कि अब हुकूमत की बागडोर उन लोगों के हाथों में आ जानी चाहिए जिनके सीनों में दिल धड़कता हो, जिनकी आँखें मज़लूम के आँसू न देख सकती हों, जिनके दिल अभी भी ज़िंदा हों और ग़रीबों के ग़म के बोझ से दबे जाते हों।जिनका मज़हब, रंग व नसल के भेद की शिक्षा से पाक हो।

इसलिए कि आज देश में एक तरफ़ ग़रीबी और बेरोज़गारी की दर में रिकॉर्ड बढ़ोतरी हो रही है और महँगाई आसमान छू रही है और दूसरी तरफ़ दौलत सिमट कर चंद हाथों में पहुँच रही है, इस सुरते-हाल में वो दिन दूर नहीं जब जनता को खाने के लिए ज़हर भी आसानी से नहीं मिलेगा।

कितने ही नीरव मोदी देश की दौलत लूट कर फ़रार हो गए, कितने ही भ्रष्ट राजनेताओं का माल स्विस बैंकों में जमा है तो इस बात की क्या गारंटी है कि अडानी और अम्बानी देश से फ़रार नहीं होंगे।

पिछले सात साल से राजनीति के जो अमानवीय रंग हमने देखे हैं अगर वो आगे नहीं देखने हैं तो दो ही रास्ते हैं या तो हम अपनी आखें फोड़ लें या फिर राजनीति में दाख़िल हो कर समाज सेवा के कामों के फ़ायदे को आम इंसान तक पहुँचाएँ।

मेरी गुज़ारिश है उन साफ़-दिल रखने वाले लोगों से जो अभी अपने-अपने पवित्र दायरों मैं बैठ कर मुल्क और क़ौम का तमाशा देख रहे हैं कि वो आगे आएँ और लोगों की सेवा के जो काम वो बग़ैर किसी ताक़त के अंजाम दे रहे हैं उन्हें दौलत और अधिकार की ताक़त से और ज़्यादा फैलाएँ।

सियासत कर रहे नेताओं से भी गुज़ारिश है कि वो अपने रहनुमा होने के फ़र्ज़ को समझें, राजनीति केवल तस्वीर छपवाने का नाम नहीं है, बराए-करम फ़ोटो गैलरी से बाहर आएँ। समाज की ज़रूरतों को सामने रखते हुए अपनी सलाहियतों का इस्तेमाल करें।

आप क़ौम की सेवा करने वाले लोग हैं, सेवा को अपनी आदत बनाएं, अपने राजनीतिक दायरे में तालीम और सेहत के इदारे क़ायम करें, जहालत, ग़रीबी और बेरोज़गारी दूर करने की गम्भीर कोशिश करें।

सिर्फ़ नोट की ताक़त से वोट हासिल न करें बल्कि सेवा के बदले वोट की पालिसी अपनाएं। आख़िर ये देश भी आप का है, ये जनता भी आपकी है और आपके पास जो ताक़त है वह भी जनता ही की है।

ख़िदमते-क़ौमो-वतन ही थी सियासत भी कभी।
रह गया है अब फ़क़त तस्वीर छपवाने का नाम॥

(यह लेखक के अपने विचार है लेखक कलीमुल हफ़ीज़ एआईएमआईएम दिल्ली के अध्यक्ष है)

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