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सम्पादकीय

जो लोग देशवासियों को किसी भी नाम पर आपस में लड़ाने की बात करते हैं, वो देश के वफ़ादार हरगिज़ नहीं हो सकते

भारतीय संस्कृति जिस बुनियाद पर क़ायम थी वो यही अक़ीदा था जिसका ज़िक्र अल्ताफ़ हुसैन हाली ने अपने इस शेर में किया है-

यही है इबादत यही दीन-ओ-ईमाँ।
कि काम आए दुनिया में इन्साँ के इन्साँ॥

सभी मज़हबों का इस बात पर इत्तिफ़ाक़ है कि सबसे बड़ी इबादत यही है कि इंसान इंसान के काम आए, उसकी ख़बरगीरी करे, उसके दुःख में उसके साथ अच्छा बर्ताव करे, उसकी ख़ुशी में शामिल हो कर उसे दो गुना कर दे। हिन्दू धर्म का ‘वसुधैव कुटुंबकम’ और इस्लाम का ‘अल-ख़ुल्क़ु अयालुल्लाह’ यानी ‘सारी मख़लूक़ अल्लाह का कुन्बा है’ का मक़सद यही है कि इंसान की ख़िदमत उसके धर्म और अक़ीदे को देख कर नहीं की जाएगी बल्कि सिर्फ़ इंसान होने की वजह से की जाएगी।

भारत की ये तहज़ीब हज़ारों साल से चलती आ रही है। अभी वो लोग ज़िंदा हैं और वो आँखें गवाह हैं जिन्होंने इंसानियत की उस क़द्र और वैल्यू को देखा और क़ायम रखा है। एक ही हुक़्क़े की ‘नै’ से हिन्दू और मुसलमान कश लेते थे, एक-दूसरे के यहाँ शादी-ब्याह की सारी रस्मों में शामिल होते थे। कॉलेज और स्कूल में एक ही बेंच पर पीटर, इक़बाल और शंकर बैठते थे। कितना ख़ुशगवार दौर था जब मुसलमान के घर की आग बुझाने के लिए गाँव के हिन्दू दौड़ पड़ते थे और हिन्दुओं के छप्पर उठाने के लिए मुसलमानों के हाथ आगे बढ़ते थे। कितनी इंसानियत थी जब हिन्दू लड़की एक मुसलमान के घर में और मुस्लिम लड़की हिन्दू के घर में ख़ुद को महफ़ूज़ समझती थी।

दुनिया हमें तअज्जुब भरी नज़रों से देखती थी जब दानिश शंकर को और राज कुमार अब्दुल को चाचा कह कर पुकारते थे। बदक़िस्मती से अब हालात बिलकुल बदल गए हैं। अब किसी जनेउधारी और तिलकधारी को देख कर मुसलमान डर जाते हैं, लम्बी दाढ़ी, टोपी देख कर ग़ैर- मुस्लिम अपने-आपको महफूज़ नहीं समझते। वही पोशाक जो कभी अमन-व-शान्ति की निशानदेही करती थी, आज दहशत और आतंक का निशान बन गई है। वो साधू माहराज जो सबके भले की कामना करते थे आज ‘मुल्ले काटे जाएंगे’ का नारा लगाते हैं।

ये सब हमारी मौजूदा भारत सरकार का कारनामा है। अगर ये सरकार कुछ साल और रही तो ये देश गृह-युद्ध का मैदान बन सकता है। इसका भूगोल बदल सकता है। इसकी जग-हँसाई वैसे तो सारी दुनिया में हो ही रही है लेकिन इस सरकार के रहते हम अपना मुँह भी दिखाने के क़ाबिल नहीं रहेंगे। अजीब बात है कि हमारे हुक्मरानों में हिन्दू धर्म की रक्षा का अहसास आज सबसे ज़्यादा पैदा हो रहा है जबकि मुल्क पर 75 साल से हिन्दुओं की ही हुकुमरानी है। असल में इस हुकूमत और इसको चलाने वालों का अपना एक अजेंडा है जिसको वो पिछले 7 साल से अपनी पूरी ताक़त के साथ लागू कर रहे हैं। उसका एजेंडा मुहब्बत के बजाए नफ़रत पर आधारित है। उनकी सियासत इंसानियत नहीं, दुश्मनी है।

किसी भी देश के लिये सबसे बड़ा चैलेंज अगर कोई है तो वो उसके लोगों के बीच नफ़रत और ईर्ष्या की भावनाओं में बढ़ोतरी है। जब देश की जनता आपस में धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग और क्षेत्र के आधार पर एक-दूसरे से नफ़रत करने लगे, जब उसे ऊँच-नीच की बुनियाद पर बाँट दिया जाए और कमज़ोरों पर ज़ुल्म किया जाने लगे तो उस देश की तरक़्क़ी पर ग्रहण लग जाता है बल्कि ये नफ़रत देश को कमज़ोर कर देती है। जिसका अंजाम कभी-कभी देश को ग़ुलामी के भेस में देखना पड़ता है। जिसको हम भारत-वासियों से बेहतर कोई नहीं जानता। हम ग़ुलामी देख चुके हैं। जबकि अगर एक देश के लोगों के बीच मुहब्बत के रिश्ते होते हैं तो देश बड़े से बड़े दुश्मन पर क़ाबू पा सकता है, उसको भी हम 1947 में अपनी आज़ादी की शक्ल में देख चुके हैं।

लोगों को ये बात समझनी चाहिये और समझाई जानी चाहिये कि जो लोग देश के नागरिकों को किसी भी नाम पर आपस में लड़ाने, उन में भेद-भाव करने की बात करते हैं, वो मुल्क के वफ़ादार हर्गिज़ नहीं हो सकते। आज जिस तरह हिन्दू अतिवादियों और कट्टरवादियों की तरफ़ से खुले आम जलसे, जुलूसों में नारे लगाए जा रहे हैं, जिस तरह के भाषण दिये जा रहे हैं उसी के नतीजे में ख़ास तबक़े को निशाना बना कर लिंचिंग की जा रही है, नफ़रत भरा माहौल का ये असर केवल मुसलमान की जान के नुक़सान पर ख़त्म नहीं होता बल्कि उनके कारोबार पर भी पड़ता है, उनकी पढ़ाई पर भी असर पड़ता है, उनकी सेहत पर भी इसके असरात होते हैं।

इस वक़्त सब्ज़ी बेचने वाला, चूड़ी बेचने वाला या ठेले पर गली-गली घूम कर सामान बेचने वाला मुसलमान हिन्दू मोहल्ले में जाने से घबराता है। मुस्लमान मज़दूरों को हिन्दू ठेकेदार मुश्किल से काम पर रखते हैं। नफ़रत का ज़हर रिटेल मार्किट से ले कर होल-सेल मार्किट तक फैल गया है। इसी तरह स्कूलों में मुसलमान बच्चों के दाख़िलों में रूकावटें पैदा हो गई हैं, यहाँ तक कि हॉस्पिटल्स में मुसलमान मरीज़ों की देख भाल और इलाज में कोताही के वाक़िआत सामने आ रहे हैं। इंसानियत का ये वो नुक़सान है जो मौजूदा हुकूमत की नफ़रत भरी पॉलिसीज़ का नतीजा है।

मुसलमानों से नफ़रत पैदा करना या उन्हें नज़र-अन्दाज़ करना मौजूदा सरकार का सबसे बड़ा मक़सद है। लेकिन इस काम में उसका साथ जम्हूरियत के सभी इदारे दे रहे हैं। जम्हूरियत की आड़ में वो अपने ही मन के घड़े हुए क़ानून लागू कर रहे हैं। अदालतें ख़ामोश बैठी तमाशा देख रही हैं, कभी-कभी किसी जज का ज़मीर जाग जाता है और सरकार को फिटकार लगा देता है और इससे ज़्यादा वो कर भी क्या सकता है। व्यवस्थापिका (Administration) की बाग-डोर तो विधायका (Legislative) के हाथों में ही होती है, व्यवस्थापिका में एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो संघ के स्कूलों से पढ़कर आई है, जिनकी रग-रग में मुसलमानों से नफ़रत का ज़हर है, रही पत्रकारिता और मीडिया तो वो भी जबसे ख़रीदने-बेचने के काम में आई है तब से उसका क़लम केवल ज़ुल्म के लिये ही उठा है।

इन हालात को कैसे बदला जाए? ये अहम सवाल है। इसलिये कि हालात अगर नहीं बदले गए तो देश को तबाही से कोई नहीं रोक सकता। हालात को बदलने के लिये सरकार से कोई उम्मीद लगाना बेवक़ूफ़ी होगी इसलिये कि जिस सरकार ने ये हालात अपनी अनथक कोशिशों से पैदा किये हों वो उसको बदलने के लिये कोशिश क्यों करेगी? बल्कि वो तो हर उस क़दम को रोकने की कोशिश करेगी जो देश में भाईचारे को क़ायम करने और इंसानियत को बचाने के लिये उठाया जाएगा।

व्यवस्थापिका और न्यायपालिका से भी उम्मीद लगाना बेकार है, अलबत्ता इनमें काम कर रहे वो लोग जिनका ज़मीर अभी ज़िन्दा है, उनको इकट्ठा करके कोई कारगर काम किया जा सकता है। मीडिया चूँकि बिकाऊ है इसलिये या तो उसे ख़रीद कर इंसानियत की ख़िदमत में लगाया जाए या फिर कोई मीडिया हाउस क़ायम किया जाए, मीडिया में कुछ तादाद ऐसे लोगों की है जिनके क़लम से सच्चाई की आवाज़ सुनाई देती है। ये तादाद बहुत कम है, कमज़ोर है। इसको भी इकट्ठा करके ताक़तवर बनाया जा सकता है। मगर ये काम भी कौन करे?

ये काम भारत के उन सपूतों की ज़िम्मेदारी है जो भारत से मुहब्बत करते हैं, जो मौजूदा हालात पर फ़िक्रमंद हैं, जिनकी आँखों में इंसानियत के दीये रोशन हैं, मुझे यक़ीन है कि ऐसे लोगों की तादाद अच्छी ख़ासी है जो इंसानियत की सेवा को ही सबसे बड़ा धर्म मानते हैं। अगर ये लोग इकट्ठे हो जाएं तो अभी भी इंसानियत को बचाया जा सकता है, दूसरे अल्फ़ाज़ में मुल्क को बचाया जा सकता है।

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक कलीमुल हफ़ीज़ एआईएमआईएम दिल्ली के अध्यक्ष हैं)

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