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सम्पादकीय

प्रधानमंत्री को किसान पसंद नहीं और किसानों को उन पर भरोसा नहीं

प्रधानमंत्री किसानों से बात करना पसंद करते हैं लेकिन उन किसानों से नहीं जो मुद्दों की जानकारी रखते हैं और माँग करते हैं। आपने शायद ही कोई दृश्य ऐसा देखा हो कि कोई तबका सड़क पर आंदोलन कर रहा हो और उसके दल से प्रधानमंत्री बात कर रहे हों। प्रधानमंत्री ने किसानों से बात की लेकिन उन किसानों से जिन्हें लाभार्थी बना कर बिठाया गया और उन्होंने वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिए किसानों को ज्ञान दिया। उन्हें उपभोक्ता का फ़ीडबैक चाहिए लेकिन नागरिक का नहीं। प्रधानमंत्री इन किसान नेताओं से कभी बात नहीं करेंगे क्योंकि वे उन्हें पसंद नहीं करते। अंह के मंच पर मोदी हैं किसान नहीं। किसान ज़मीन पर है।

प्रधानमंत्री के भाषणों की विश्वसनीयता पहले भी नहीं थी और अब भी नहीं है। लोगों को सिखाया गया कि मोदी मोदी कैसे करना है। टीवी के लिए ध्वनि का प्रचंड वातावरण पैदा किया गया। इन सबके पीछे विकल्प नहीं है और मज़बूत नेता चाहिए का आकर्षण पैदा किया गया। इसमें धार्मिक पहचान की राजनीति और झूठ का बहुत बड़ा रोल रहा। नफ़रत और उन्माद से लैस एक ऐसा समर्थक वर्ग तैयार किया गया जिसने सवालों से प्रधानमंत्री को परखना बंद कर दिया। जनता तब भी जानती थी कि केवल भाषण है। लेकिन जब तक उस पर सोच पाती, मुसलमान नाम के एक प्राणी को खड़ा कर जेहाद से लेकर कोरोना के फैलने का प्रोपेगैंडा रच दिया जाता है। हिन्दू धर्म के भीतर असुरक्षा का भूत खड़ा किया जाता है। अगर मुसलमानों के प्रति नफ़रत की राजनीति से तैयार जनमानस को अलग कर दिया जाए तो प्रधानमंत्री की रैली में केवल प्रधानमंत्री होंगे। बोलने वाले वही, सुनने वाले वही।

किसान जान गए हैं। यह आंदोलन इसलिए भी सफल हुआ क्योंकि इसमें से बहुत किसानों ने खुद को मुसलमान विरोधी वोटर से सरकार विरोधी वोटर में बदला। ज़ाहिर है सरकार को डरना था। जैसे ही नागरिक मुद्दों को लेकर मतदाता बनता है सरकार सुनती है। जब सरकार को लग जाए कि वह एक साल तक महंगाई के रास्ते आपका सारा धन निकाल लेगी और आप मुसलमान विरोधी बने रहेंगे और इसी आधार पर वोट देंगे तो सरकार आपको ग़ुलाम समझेगी। राजनीति में धर्म कर्म को बढ़ावा देकर आप अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारेंगे। मेरी इस बात को लिख कर पर्स में रख लें।

मोदी की राजनीति में नफ़रत के अलावा झूठ का बड़ा रोल है।
मीडिया ने सरकार को हर सवाल से बचाया। झूठे मुद्दे खड़े कर मज़बूत नेता की महानता स्थापित की गई। नेता की इस मज़बूती के पीछे ताक़त है, ईमानदार सूचनाए नहीं हैं। मोदी को मैं झूठ का सच मानता हूँ। झूठ से लैस प्रतिबद्ध मीडिया, कार्यकर्ता और समर्थकों के सच्चे नेता। अगर झूठ नहीं रहेगा तो राजनीति में मोदी भी नहीं रहेंगे। लोगों के खाते में सीधा पैसा और लोगों के दिमाग़ में सौ झूठ। इन दो चीजों के कारगर हस्तांतरण से चुनावी जीत का आधार तैयार किया जाता है। इससे मोदी को सत्ता तो मिलती रहेगी लेकिन उन्हें सत्ता देने वाली जनता हमेशा सत्ताविहीन रहेगी।

मोदी ने किसानों के लिए जितना किया उतना किसी ने नहीं किया। बीजेपी के अध्यक्षों पी नड्डा कुछ भी बोल सकते हैं। इस बात का कोई एक जवाब नहीं हो सकता लेकिन कुछ बड़े मुद्दों पर मोदी के काम को परखा ही जा सकता है जैसे किसानों की आमदनी, फसल बीमा और न्यूनतम समर्थन मूल्य।

2022 में किसानों की आय दोगुनी होने वाली है। 2016 में जब यह दावा किया जा रहा था तब टार्गेट 2022 का रख कर झाँसा दिया जा रहा था कि पाँच साल बाद देखा जाएगा, अभी तो हेडलाइन छपवा लें। 2022 आ गया है। एक महीना दूर है। सरकार ने इस पर बात करना बंद कर दिया है।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का हाल देख लीजिए। इसका किस तरह से राजनीतिक इस्तमाल बढ़ा है। जिस राज्य में चुनाव होता है उस राज्य में इसका भुगतान बढ़ जाता है। चुनाव होते ही किसान पैसे के लिए भटकते रहते हैं। कंपनियाँ भी बीमा देने में सौ पैंतरें करती हैं। बिहार और गुजरात जैसे राज्य इस गेम को समझ गए और इस योजना से बाहर हो गए। कुल मिलाकर यह योजना भी कुछ को मिला है कि सफलता पर चल रही है। बाक़ी आप किसानों से पूछ लें ।

तीन बड़ी योजनाओं का यह हाल है। जब यह पिटने लगते हैं तो आर्गेनिक खेती का ड्रामा किया जाता है ताकि लोग इनकी नीयत पर फ़िदा हो जाएँ। पाँच साल इस पर भी बात करने में निकल गए।

किसान जितनी देर नागरिक और मतदाता बने रहेंगे, उनके जीतने की संभावना बनी रहेगी। जैसे ही छह हज़ार के लिए किसान सम्मान निधि योजना के लाभार्थी बने वे हर लड़ाई हार जाएँगे। छह हज़ार के लिए छह लाख गँवा देंगे।

(यह लेखक के अपने विचार हैं लेखक रवीश कुमार पत्रकार हैं)

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